SARJANA CHATURVEDI

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Thursday 13 November 2014




भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान आईआईएसईआर विज्ञान की ओर बढ़ाएं अपने कदम

भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान आईआईएसईआर विज्ञान की ओर बढ़ाएं अपने कदम
 
अगर बचपन से ही विज्ञान के अलग-अलग पहलुओं से जुड़े सवाल आपको परेशान करते हैं और जब तक आप उनका जवाब नहीं जान लेते हैं, तब तक आपको सुकून नहीं मिलता है, तो समझ लीजिए कि विज्ञान ही आपका पसंदीदा विषय है। विज्ञान के क्षेत्र में रुचि रखने वाले अनुसंधान से जुड़े भारतीय छात्रों के लिए भारत सरकार ने भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान को स्थापित किया है। यह शिक्षण और अनुसंधान विज्ञान के प्रति आपकी रुचि को देखते हुए आपके ज्ञान को विकसित करने में अपनी भूमिका निभाता है। मध्यप्रदेश में अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए गौरव की बात है कि 2008 में यह संस्थान प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी शुरू हो गया। विज्ञान विषय में ही यदि आप अपना कॅरियर बनाने की चाह रखते हैं तो निश्चित ही इस संस्थान में प्रवेश ले सकते हैं।
क्यों की गई स्थापना
प्रो. सी.एन.आर. राव की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक परामर्शी परिषद (एसएसी-पीएम) ने विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान को समर्पित पांच नए संस्थानों की स्थापना करने की सिफारिश की थी, जिसका नाम आईआईएस बंगलौर की तर्ज पर ‘भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान परिषद’ होगा।
इन संस्थानों का लक्ष्य आधुनिक अनुसंधान सहित एकीकृत आधारभूत विज्ञान में शिक्षण और शिक्षा के ऊंचे मानकों के अनुसंधान केन्द्र स्थापित करना है। ये संस्थान अनुसंधान के बौद्धिक वातावरण में विज्ञान में अवरस्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षण को समर्पित होंगे और विज्ञान के एकीकृत शिक्षण और अध्ययन में अवसर प्रदान करके आधारभूत विज्ञान में युवाओं को आकर्षक रोज़गार प्रदान करेंगे।
आईआईएसईआर स्थापना का लक्ष्य -
आधारभूत विज्ञान में गुणवत्तायुक्त शिक्षा और अनुसंधान प्रदान करना।
उच्च गुणवत्तायुक्त शैक्षिक संकाय को आकर्षित और पोषित करना।
कम उम्र में अनुसंधान में प्रवेश प्रदान करने के उद्देश्य से विज्ञान में एकीकृत स्नातकोत्तर कार्यक्रम प्रारंभ करना इसके अतिरिक्त यह संस्थान विज्ञान में अवर स्नातक डिग्री रखने वाले स्नातकोत्तर और पीएचडी के एकीकृत कार्यक्रम प्रदान करेगा। विज्ञान में लचीले पाठ्यक्रम को संभव बनाना।
वर्तमान विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के साथ सशक्त संबंध स्थापित करना और प्रयोगशाला और संस्थाओं के साथ नेटवर्क स्थापित करना। उन्नत अनुसंधान प्रयोगशालाएं और केन्द्रीय सुविधाएं स्थापित करना। उन्नत अनुसंधान प्रयोगशालाएं और केन्द्रीय सुविधाएं स्थापित करना।
यह कोर्स कर सकते हैं
बीएसएमएस-ड्यूल डिग्री प्रोग्राम
बीएसएमएस - बैचलर ऑफ साइंस, मास्टर ऑफ साइंस 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद बीएसएमएस के कोर्स में एडमीशन लिया जा सकता है। इस कोर्स को बायोलॉजिकल साइंस, केमिस्ट्री, मैथमेटिक्स, फिजिक्स में किया जा सकता है।
डॉक्टरल प्रोग्राम-पीएचडी
ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ स्टूडेंट्स जॉब करने की चाह रखते हैं तो कुछ पीएचडी करके रिसर्च की फील्ड में जाने की चाह रखते हैं। इसलिए यदि आप पोस्ट ग्रेजुएशन कंप्लीट करने के बाद पीएचडी करने की चाह रखते हैं तो आईआईएसईआर के डॉक्टरल प्रोग्राम पीएचडी में आप प्रवेश ले सकते हैं।
इन विषयों में कर सकते हैं पीएचडी
बायोलॉजिकल साइंस, केमिस्ट्री
अर्थ एंड एन्वायरमेंटल साइंस
मैथमेटिक्स, फिजिक्स
ऐसे मिलेगा प्रवेश
अगर आप पीएचडी कार्यक्रम में प्रवेश लेना चाहते हैं तो उसके लिए आपको संबंधित विषय में एमएससी, एमएस, एमटेक या एमबीबीएस समेत मास्टर डिग्री होना जरूरी है।
इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्री पीएचडी प्रवेश परीक्षा को भी क्वालीफाई करना जरूरी है। इसके साथ ही इंजीनियरिंग के छात्र को ग्रेजुएट एप्टीट्यूट टेस्ट में भी एक अच्छी रैंक होना जरूरी है या फिर काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च सीएसआईआर, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यूजीसी द्वारा आयोजित की जाने वाली नेट, जेआरएफ या उसके समकक्ष परीक्षा पास किए हुए प्रतिभागी भी इस कोर्स में शामिल हो सकते हैं।
पीएचडी कार्यक्रम के लिए चयनित युवा किसी अन्य स्कॉलरशिप को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
इन विषयों में कर सकते हैं पीएचडी
बायोलॉजीकल साइंस, केमिस्ट्री
अर्थ एंड एन्वायरमेंटल साइंस
मैथमेटिक्स
फिजिक्स
पीएचडी प्रोग्राम में शामिल होने वाले प्रतिभागियों को कोर्स वर्क, क्वालीफाइंग एग्जाम, डिजर्टेशन के अलावा विभिन्न सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, वर्कशॉप में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि वह अपनी क्षमता का अधिक से अधिक बेहतर उपयोग कर सकें।
यह सुविधाएँ हैं मौजूद
ई-लाइब्रेरी और कंप्यूटर सेंटर
छात्रों को पढ़ने के लिए विषय संबंधी किताबें और रिसर्च जर्नल, ई-बुक आईआईएसईआर की लाइब्रेरी में मौजूद है। इसके साथ ही लाइब्रेरी इंटरनेट से कनेक्ट है, साथ ही देश में मौजूद अन्य आईआईएसईआर की लाइब्रेरी की भी इंटरनेट लिंक लाइब्रेरी में उपलब्ध हैं। इसके साथ ही अपडेट कंम्प्यूटर इंटरनेट फेसिलिटी के साथ यहाँ मौजूद हैं।
रिसर्च के लिए अत्याधुनिक उपकरण मौजूद
संस्थान में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं को रिसर्च के लिए आवश्यक अत्याधुनिक उपकरण भी यहाँ मौजूद हैं। इसके साथ ही हॉस्टल, कॉन्फ्रेंस हॉल, ट्रांसपोर्ट, हेल्थ सेंटर, ई-क्लास रूम की सुविधाएं भी यहाँ छात्र-छात्राओं के लिए हैं।
कॅरियर की राह
यदि आप रिसर्च के क्षेत्र में जाना चाहते हैं या फिर वैज्ञानिक के तौर पर अपना कॅरियर बनाने की चाह रखते हैं तो आईआईएसईआर आपको इसके लिए संभावनाएं उपलब्ध कराता है। इसके साथ ही यहां से पढ़ाई करने के बाद आप टीचिंग की फील्ड में भी अपना बेहतर कल देख सकते हैं। संस्थान में कॅरियर डेवलपमेंट सेंटर के माध्यम से छात्रों की भी कॅरियर संबंधी समस्याओं का समाधान किया जाता है।
ऐसे मिलेगा प्रवेश
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) के ड्यूअल डिग्री पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए आवेदन प्रक्रिया की शुरुआत जून-जुलाई में होती है। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संचालित आईआईएसईआर के पाँचों कैंपस में एक साथ प्रवेश प्रक्रिया आयोजित की जाती है। विज्ञान विषयों में मौलिक शोध और शिक्षण कार्य को बढ़ावा देने के लिए इन विशिष्ट संस्थानों की स्थापना की गई थी। सबसे पहले वर्ष 2006 में पुणे और कोलकाता में ये संस्थान अस्तित्व में आए। इसके बाद 2007 में मोहाली और अगले साल तिरवनंतपुरम और भोपाल में इनकी स्थापना हुई।
दाखिले के लिए जरूरी योग्यता, चयन की प्रक्रिया और आवेदन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारी -
बीएस-एमएस (ड्यूअल डिग्री)
उपलब्ध सीट - 950
अवधि - पाँच साल
शैक्षणिक योग्यता किसी मान्यता प्राप्त स्कूल शिक्षा बोर्ड/यूनिवर्सिटी से विज्ञान विषयों के साथ बारहवीं पास।
चयन प्रक्रिया
- आईआईएसईआर में छात्रों के दाखिले के लिए तीन माध्यमों का उपयोग किया जाता है।
- पहला माध्यम है किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना (केवीपीवाई) की बेसिक साइंस स्ट्रीम। इस योजना के तहत एसए/एसएक्स/एसबी में क्वालीफाई कर चुके छात्र आवेदन कर सकते हैं।
- दूसरा माध्यम है आईआईटी में प्रवेश के लिए आयोजित होने वाला जेईई (एडवांस्ड), इस साल इस परीक्षा में आईआईटी में दाखिले के लायक रैंक प्राप्त करने वाले छात्र यहाँ प्रवेश के लिए आवेदन कर सकते हैं। ऐसे आवेदकों का 60 फीसदी अंकों के साथ बारहवीं पास होना भी जरूरी है।
- आखिरी माध्यम है राज्यों या केंद्र के स्कूल शिक्षा बोर्ड। जो छात्र अपने स्कूल शिक्षा बोर्ड से बारहवीं की परीक्षा (2013 या 2014) में मिले औसत अंकों के आधार पर इंस्पायर स्कॉलरशिप के लिए योग्य हैं, वह आईआईएसईआर में प्रवेश ले सकते हैं। ‘इंस्पायर’ के लिए केंद्र सरकार का डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टैक्नोलॉजी कट ऑफ प्रतिशत निर्धारित करता है।
ओबीसी और शारीरिक अशक्त वर्ग के छात्रों का तय कट ऑफ में पाँच फीसदी की राहत मिलेगी। हालांकि एससी और एसटी क लिए कट ऑफ 55 फीसदी रखा गया है। इस कट ऑफ में आने वाले छात्रों को आईआईएसईआर के एप्टीट्यूट टेस्ट को भी पास करना होगा।
- कुल सीटों का 50 फीसदी जेईई (एडवांस्ड) के माध्यम से भरा जाएगा और 25 बोर्डों के उन 12वीं पास छात्रों से भरा जाएगा, जो आईआईएसईआर के एप्टीट्यूड टेस्ट की शीर्ष रैंकिंग में स्थान पाएंगे।
एप्टीट्यूट टेस्ट का प्रारूप
- यह परीक्षा कुल 60 बहुविकल्पीय प्रश्नों पर आधारित होती है। ये प्रश्न बायोलॉजी, केमिस्ट्री, मैथमेटिक्स और फिजिक्स से संबंधित होंगे। चारों विषयों से 15-15 प्रश्न पूछे जाएंगे। प्रश्न 11वीं और 12वीं के पाठ्यक्रम पर आधारित होंगे।
- प्रश्नों को हल करने के लिए 180 मिनट का समय मिलेगा।
- हर प्रश्न तीन अंक का होगा और गलत जवाब देने पर एक अंक काटा जाएगा।
टेस्ट का आयोजन
देश के 15 शहरों में एप्टीट्यूट टेस्ट आयोजित किया जाता है। इनमें वाराणसी, दिल्ली, कोलकाता, भोपाल, पुणे, तिरुवनंतपुरम, मोहाली और भुवनेश्वर आदि शहर शामिल हैं।
आवेदन शुल्क
- सामान्य और ओबीसी वर्ग के छात्रों के लिए शुल्क 600 रुपये है।
- यह शुल्क एससी और एसटी वर्ग के लिए 300 रुपये निर्धारित किया गया है।
- इसका भुगतान एसबीआई की नेट बैंकिंग सेवा के माध्यम से किया जा सकता है।
जरूरी सूचनाएँ
- केवीपीवाई या जेईई (एडवांस्ड) माध्यम से आवेदन करने वाले छात्रों को उनकी रैंकिंग के अनुसार सीधे काउंसलिंग में शामिल होने का मौका मिलेगा। ऐसे छात्र पाँच आईआईएसईआर में से किसी एक में काउंसलिंग के लिए पहुंच सकते हैं।
- जो छात्र चयन प्रक्रिया से संबंधित तीनों माध्यमों की योग्यता को पूरा करते हैं, वह तीनों माध्यमों से आवेदन कर सकते हैं। इसके लिए अलग-अलग फॉर्म भरने होंगे और आवेदन शुल्क भी अलग-अलग ही देना होगा।
- काउंसलिंग में शामिल होने के लिए उन्हीं छात्रों को बुलाया जाएगा, जो उपलब्ध सीटों के अनुसार रैंकिंग या मेरिट में स्थान प्राप्त करेंगे।
आवेदन प्रक्रिया
- वेबसाइट (www.iiser-admi ssion s.in) के होमपेज पर उपलब्ध लिंक पर क्लिक करें।
- इसके बाद ‘गो टू एप्लीकेशन फॉर्म’ ऑप्शन पर क्लिक करके फॉर्म को भरें। फिर आवेदन शुल्क का भुगतान करें और फॉर्म को सबमिट करें।
अधिक जानकारी यहाँ
फोन- 0755-6692409
ई-मेल :admissions@iiserb.ac.in पर भी कर सकते हैं।
देश में स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान
1. भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान (आईआईएसईआर), कोलकाता आईआईएसईआर कोलकाता अगस्त 2006 में स्थापित किया गया।
आईआईएसईआर कोलकाता एकीकृत बीएस-एमएस कार्यक्रम, एमएस कार्यक्रम, एकीकृत पीएचडी कार्यक्रम, पीएचडी कार्यक्रम और पोस्ट डॉक्टरल कार्यक्रम प्रदान करता है। अधिक जानकारी के लिए कृपया http://www.iiserkol.ac.in पर क्लिक करें।
2. भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर), पुणे
आईआईएसईआर पुणे 2006 में स्थापित किया गया जो आधारभूत विज्ञान में अनुसंधान और शिक्षण प्रदान करने के लिए समर्पित मुख्य संस्थान है। एकीकृत मास्टर कार्यक्रम का लक्ष्य बॉयोलॉजिकल, कैमिकल, मैथामेटिकल और फिजिकल साइंस में पारंपरिक विषयों को साथ लाते हुए विज्ञान शिक्षा अनुभव के साथ पारंपरिक अवर स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम को एकीकृत करना है। यह कार्यक्रम विज्ञान के समान प्रकृति पर फोकस करता है। अधिक जानकारी के लिए कृपया http:/www.iiserpune.ac.in पर क्लिक करें।
3. भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर), मोहाली आईआईएसईआर मोहाली वर्ष 2007 से स्वायत्त शैक्षिक संस्थान के रूप में स्थापित किया गया। जिसका उद्देश्य अवर स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर गुणवत्तायुक्त विज्ञान शिक्षा और विज्ञान के मुख्य क्षेत्रों में अनुसंधान प्रदान करना है। आईआईएसईआर मोहाली का मुख्य फोकस शिक्षा के साथ वैज्ञानिक अनुसंधान में एकीकृत उत्कृष्टता पर है।
आईआईएसईआर मोहाली एकीकृत स्नातकोत्तर स्तर के कार्यक्रम, डॉक्टरल कार्यक्रम एकीकृत डॉक्टरल कार्यक्रम प्रदान करता है। अधिक जानकारी के लिए कृपया http://www.iisermohali.ac.in पर क्लिक करें।
4. भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर), भोपाल आईआईएसईआर भोपाल अवर स्नातक और स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 2008 में स्थापित किया गया था। वर्तमान में आईआईएसईआर भोपाल बीएस-एमएस (दोहरी डिग्री) कार्यक्रम पीएचडी कार्यक्रम प्रदान करता है। अधिक जानकारी के लिए कृपया http://www.iiserbhopal.ac.in पर क्लिक करें।
5. भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) तिरुवनंतपुरम
भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर)
तिरुव-नंतपुरम अगस्त 2008 में स्थापित किया गया था और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के वैज्ञानिक अनुसंधान और विज्ञान शिक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित है। भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) तिरूवनंतपुरम, गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और अंतरविषयक क्षेत्रों में पाँच वर्षीय एकीकृत एमएस और पीएचडी कार्यक्रम प्रदान करता है। अधिक जानकारी के लिए http://www.iisertvm.ac.in पर क्लिक करें।

Wednesday 29 October 2014

- सािहत्य में अपनी ही िजंदगी का ताना-बाना - रिचर्ड फ्लेंगन

 शख्सियत -    िरचर्ड फ्लेंगन
- सािहत्य में अपनी ही िजंदगी का ताना-बाना - रिचर्ड फ्लेंगन 
 -  संघर्ष के सृजन का सफर

  जब कोई सािहत्यकार अपनी कृित का सृजन करता है तो वह निश्चत ही उस समय यह नहीं जानता िक उसकी कौन सी कृित सर्वश्रेष्ठ होगी या नहीं वह िसर्फ अपनी ओर से सिर्फ प्रयास करता है। ऐसा ही प्रयास करके हाल ही में मैन बुकर पुस्कार जीतकर चर्चा में आए हैं ऑस्ट्रेलिया के रिचर्ड फ्लेंगन। रिचर्ड की यह किताब इसलिए भी खास है क्योंिक यह िकताब एक लेखक ने नहीं बल्कि एक बेटे ने अपने िपता और अन्य कैदियों द्वारा भोगी गई यातनाओं का वर्णन करती हुई है। द नैरो रोड टू द डीप नॉर्थ को अपने जीवन के 12 बरस देकर िलखने वाले तस्मानिया में जन्मे रिचर्ड ने इसे अपने िपता कैदी नंबर 335 को समर्पित किया है। फ्लेंगन के जीवन, साहित्य सृजन का एक सफर।
16 बरस में छोड़ा स्कूल बाद में बने टॉपर 
िरचर्ड के जीवन के संघर्ष का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है िक उनके पिता एक कैदी थे। तस्मानिया के रोजबेरी टाउन में 1961 में जन्मे रिचर्ड अपने माता-पिता की 6 संतानों में से 5वे नंबर की संतान है। रिचर्ड ने भले ही बुकर हासिल िकया हो मगर उनके दादा-दादी गरीब के साथ-साथ अशिक्षित थे लेिकन फ्लेंगन के माता-िपता शिक्षा के महत्व को जानते थे और इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को हर कीमत पर शिक्षा पाने के लिए प्रेरित िकया। फ्लेंगन ने अपने अिभभावक की इस बात के महत्व को समझा और गरीबी के चलते भले ही उन्होंने 16 बरस की उम्र में स्कूल छोड़कर मजदूरी की और तब वह एक बढ़ई बनने की चाह भी रखने लगे थे लेिकन अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बूते
फ्लेंगन ने 1982 में तस्मानिया यूनिवर्सिटी से फर्स्ट क्लास ऑनर के साथ अपनी ग्रेजुएशन की िडग्री हासिल की। बाद में रॉडेस स्कॉलरशिप लेकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर ऑफ लैटर्स डिग्री प्राप्त की।


िजंदगी की कड़वाहट को बुना मीठे शब्दों में
अक्सर कहा जाता है कि अपने जीवन की बुरी यादों को याद नहीं रखना चाहिए लेिकन अपने पिता, अपने परिवार और खुद अपने जीवन की कड़वाहट को खूबसूरत शब्दों में ढालकर रिचर्ड फ्लेंगन ने अपने साहित्य का सृजन िकया है। यह वाकई एक अिद्वतीय िमसाल है। िरचर्ड के भाई और पत्रकार,लेखक मािर्टन फ्लेंगन के मुताबिक रिचर्ड को नदी में तैरना बचपन से ही पसंद था। जब वह 11 साल का था तब मैं और मेरा भाई िटम नदी में तैरते हुए रिचर्ड के नजर न आने को लेकर कई बार परेशान भी हो जाते थे तभी अचानक उसके नन्हें हाथों के नजर आने पर खुश हो जाते थे। लहरों से संघर्ष के इस खेल ने ही िरचर्ड को बहादुरी के साथ संघर्ष करना सिखा दिया था। मार्टिन ने एक ऑस्ट्रेिलयाई अखबार के लिए लिखा है कि 1997 में जब रिचर्ड का पहला नॉवेल डेथ अॉफ अ रिवर गाइड आया और उसे मैंने पढ़ा तो मुझे लगा कि इसके हर िबंदू को मैं जानता हूं, बस िरचर्ड ने उन्हें एक फ्रेम में शब्दों के साथ मढ़ िदया। बतौर मार्टिन इसी तरह 2002 में प्रकाशित हुए फ्लेंगन के नॉवेल गुल्ड बुक ऑफ ए िफश भी उसके बचपन की ही यादों से जुड़ा है क्योंिक वह जहां बचपन में रहता था वह गांव खदान, पहाड़ और नदी से घिरा हुआ था। और बुकर पुरस्कार फ्लेंगन के जिस उपन्यास को िमला है द नैरो रोड टू द डीप नॉर्थ वह डेथ रेल्वे के नाम से पहचाने जाने वाले बर्मा - थाइलैंड पर केिन्द्रत है। हमारे िपता आर्की फ्लेंगन जो एक आम आदमी थे और उनके जैसे लाखों
कैिदयों का संघर्ष इस नॉवेल में फ्लेंगन ने िलखा है। जापानी साम्राज्य के क्रूर अत्याचार और लाखों गुलामों की मदद से 1943में बनाए गए इस रेल मार्ग को लेकर लोगों के संघर्ष को फ्लेंगन ने प्यार और अन्य खूबसूरत घटनाक्रमों के साथ आकार िदया है। मािर्टन के शब्दों में इसलिए जब मैंने इस नॉवेल को एक साल पहले लांच िकया था तभी कहा था िक इसका बढ़ा प्रभाव होगा।
िपता की चाह थी और वह पूरी हुई
यह दुर्लभ सा संयोग ही है कि फ्लेंगन के पिता शायद इस नॉवेल के पूरे होने का ही इंतजार कर रहे थे, क्योंिक फ्लेंगन का यह उपन्यास जिस डेथ रेल्वे पर केिन्द्रत है। फ्लेंग
के पिता उसके निर्माण कार्य में लगे एक कैदी थे। अपने आपको डैथ रेल्वे का बेटा कहने वाले फ्लेंगन जब इस उपन्यास को पूरा कर रहे थे। तभी उनके िपता की याददाश्त धीरे-धीरे बिल्कुल खत्म होने लगी थी और फ्लेंगन को कुछ भी उस दौर का बता पाने में असमर्थ हो गए थे। तब फ्लेंगन ने तस्मािनया जाकर उस दौर के लोगों से मुलाकात की और िस्थति को जाना। फ्लेंगन के मुतािबक इस किताब को िलखते समय कई बार लगा कि यह शायद पूरा नहीं हो पाएगा मगर सिर्फ मेरे पिता को भरोसा था िक मैं इसे पूरा कर लूंगा। उपन्यास लेखन के अंतिम छ: महीने तस्मािनया में ही रहकर उसे पूरा करने वाले फ्लेंगन के 99 वर्षीय िपता जो िक फ्लेंगन की बहन के साथ रहते थे, एक दिन कॉल करके फ्लेंगन से उपन्यास पूरा होने के बारे में पूछा और फ्लेंगन ने बताया िक हां वह पूरा हो गया है और उसे मैंने प्रकाशक को ईमेल कर िदया है, यह जानने के चंद घंटों बाद ही उसी रात फ्लेंगन के पिता ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
 अिवस्मरणीय है मेरे लिए यह क्षण
 रिचर्ड फ्लेंगन को जब लंदन में मैन बुकर पुरस्कार से सम्मानित करते हुए उन्हें डचेस ऑफ कॉर्नवाल ट्राफी और 50 हजार पाउंड से सम्मानित किया गया तब फ्लेंगन ने कहा िक ऑस्ट्रेलिया में बुकर सम्मान को भाग्यशाली चिकन के तौर पर देखा जाता है और मुझे यह िमल रहा है। यह मेरे लिए गर्व की बात है। रिचर्ड ने कहा कि मैं साहित्य की परंपरा से नहीं आता हूं, मेरे दादा-दादी अनपढ़ थे। मैं एक छोटे से कस्बेे से आता हूं जो पर्वत और बारिश से िघरा हुआ आइसलैंड है। फ्लेंगन ने कहा िक मैंने यह कभी नहीं सोचा था िक लंदन के इस ग्रेंड हॉल में मुझे कभी सम्मानित किया जाएगा। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। इस दौरान फ्लेंगन ने िपता को समर्पित करते हुए इस सम्मान के लिए िनर्णायकों को धन्यवाद िदया। साथ ही 30 सालों से हर पल साथ िनभाने वाली अपनी पत्नी माजदा को लेखन के इस सफर में साथ देने के लिए शुिक्रया अदा िकया और अपने उपन्यास की प्रकाशक निक्की िक्रस्टर को भी धन्यवाद दिया।
तस्मानिया के पहले और ऑस्ट्रेिलया के तीसरे बुकर
  सम्मान
2014 मैन बुक प्राइज, िब्रटेन
2011 तस्मािनया बुक प्राइज, वॉनि्टंग
2009 क्वीनसलैंड प्रीमियर लिटररी अवार्ड एंड फिक्शन वॉनि्टंग
2009 मिल्स फ्रेंकलिन अवॉर्ड, ऑस्ट्रेिलया वॉनि्टंग शॉर्टलिस्ट
2008 वेस्टर्न ऑस्ट्रेिलयन प्रीमियर लिटररी अवॉर्ड फॉर फिक्शन वॉनि्टंग 
2002 कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज - गुल्ड बुक ऑफ फिश- अ नॉवेल इन ट्वेलव फिश
कृितयां 
2013 द नैरो रोड टू द डीप नॉर्थ
2009 वॉनि‌‌्टंग 
2007 अननोन टेरेिरस्ट
2002 गुल्ड बुक ऑफ ए फिश-अ नॉवेल इन ट्वेलव फिश
1998 द साउंड ऑफ वन हेंड क्लेपिंग
1997 डेथ अॉफ अ रिवर गाइड

Wednesday 16 July 2014

मां के आंचल में समाए कितने ही बेसहारा


          ममत्व की मिसाल - मदर टेरेसा

पीडि़त मानवता की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है, स्वामी विवेकानंद के इस विचार को सुना भले ही करोड़ों लोगों ने होगा लेकिन इसे जीवन में उतारने वाले चंद लोग ही हैं। ऐसा ही एक नाम है मदर टेरेसा, मदर यानी मां जिन्होंने हिंदुस्तान की धरती पर रहने वाले गरीब और असहाय लोगों के लिए अपना आंचल फैलाकर अपनी ममता के आगोश में उन्हें रखा। इसलिए कहा भी जाता है जन्म देने वाले से बड़ा पालन पोषण करने वाला करने वाला होता है। अपनी कोख से भले किसी बच्चे को जन्म न देने वाली इस मां की मानवता की सेवा को देखकर उनकी वंदना लोग करते हैं। ममत्व और प्रेम की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा ने दुनिया भर में अपने शांति-कार्यों की वजह से नाम कमाया. मदर टेरेसा ने जिस आत्मीयता से भारत के दीन-दुखियों की सेवा की है, उसके लिए देश सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहेगा।  मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को मेसिडोनिया की राजधानी स्कोप्जे शहर में हुआ था लेकिन वह खुद अपना जन्मदिन 27 अगस्त मानती थीं। उनके पिता का नाम निकोला बोयाजू और माता का नाम द्राना बोयाजू था। मदर टेरेसा का असली नाम 'अगनेस गोंझा बोयाजिजूÓ था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है।  अगनेस के सिर से पिता का साया महज 7 बरस की आयु में ही उठ गया बाद में उनका लालन-पालन उनकी माता ने किया। पांच भाई-बहनों में वह सबसे छोटी थीं और उनके जन्म के समय उनकी बड़ी बहन आच्च की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी,अपने स्कूली जीवन में ही 'सोडालिटीÓ से उनका सम्पर्क हुआ। वह इस संस्था की सदस्या बन गयीं। यहीं से उनके जीवन को एक नयी दिशा मिली; उनके विचारों को चिन्तन का एक नया आयाम मिला। अन्तत: इस नयी दिशा ने, इस नये चिन्तन ने ममता की मूर्ति माँ टेरेसा का निर्माण किया। घर में सभी प्रकार का सुख था। अभाव या दु:ख जैसी कोई चीज़ न थी, किन्तु अग्नेस को तो मां बनना था, अनेक निराश्रितों, दु:खियों उपेक्षितों की मां, विश्व की मां, विश्वजननी बनना था। उनकी कितनी ही सन्तानें नया जीवन पाकर सुखों का भोग कर रही हैं, कितनी ही सन्तानें उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं, भारत में ही नहीं विदेशों में भी।
जिनके जन्म देनेवालों का कोई पता तक नहीं, ऐसे कितने ही व्यक्ति मां की ममता का सम्बल पाकर नये जीवन में प्रवेश कर चुके हैं कितनी ही अबलाएं अपनी गृहस्थी बसा चुकी हैं।
कितने ही परित्यक्त शिशु माँ की ममता पाकर शैशव का सुख भोग रहे हैं, किलकारियां मार रहे हैं।
कितने ही विकलांग, मूक-बधिर माँ के शिशु-सदनों में सामान्य जीवन जी रहे हैं।  गोंझा को एक नया नाम 'सिस्टर टेरेसाÓ दिया गया जो इस बात का संकेत था कि वह एक नया जीवन शुरू करने जा रही हैं। यह नया जीवन एक नए देश में जोकि उनके परिवार से काफी दूर था, सहज नहीं था लेकिन सिस्टर टेरेसा ने बड़ी शांति का अनुभव किया।सिस्टर टेरेसा तीन अन्य सिस्टरों के साथ आयरलैंड से एक जहाज में बैठकर 6 जनवरी, 1929 को कोलकाता में 'लोरेटो कॉन्वेंटÓ पंहुचीं. वह बहुत ही अच्छी अनुशासित शिक्षिका थीं और विद्यार्थी उन्हें बहुत प्यार करते थे।  वर्ष 1944 में वह सेंट मैरी स्कूल की प्रिंसिपल बन गईं। मदर टेरेसा ने आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गो की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। मदर टेरेसा जब भारत आईं तो उन्होंने यहां बेसहारा और विकलांग बच्चों तथा सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आंखों से देखा और फिर वे भारत से मुंह मोडऩे का साहस नहीं कर सकीं। वे यहीं पर रुक गईं और जनसेवा का व्रत ले लिया, जिसका वे अनवरत पालन करती रहीं। मदर टेरेसा ने भ्रूण हत्या के विरोध में सारे विश्व में अपना रोष दर्शाते हुए अनाथ एवं अवैध संतानों को अपनाकर मातृत्व-सुख प्रदान किया। उन्होंने फुटपाथों पर पड़े हुए रोत-सिसकते रोगी अथवा मरणासन्न असहाय व्यक्तियों को उठाया और अपने सेवा केन्द्रों में उनका उपचार कर स्वस्थ बनाया, या कम से कम उनके अन्तिम समय को शान्तिपूर्ण बना दिया। दुखी मानवता की सेवा ही उनके जीवन का व्रत था। सन् 1949 में मदर टेरेसा ने गरीब, असहाय व अस्वस्थ लोगों की मदद के लिए 'मिशनरीज ऑफ चैरिटीÓ की स्थापना की, जिसे 7 अक्टूबर, 1950 को रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी.  इसी के साथ ही उन्होंने पारंपरिक वस्त्रों को त्यागकर नीली किनारी वाली साड़ी पहनने का फैसला किया। मदर टेरेसा ने 'निर्मल हृदयÓ और 'निर्मला शिशु भवनÓ के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीडि़त रोगियों व गरीबों की  अस्वयं सेवा करती थीं। जिन्हें
समाज ने बाहर निकाल दिया हो, ऐसे लोगों पर इस महिला ने अपनी ममता व प्रेम लुटाकर सेवा भावना का परिचय दिया।
साल 1962 में भारत सरकार ने उनकी समाज सेवा और जन कल्याण की भावना की कद्र करते हुए उन्हें पद्म श्री से नवाजा। 1980 में मदर टेरेसा को उनके द्वारा किये गये कार्यों के कारण भारत सरकार ने भारत रत्‍न से अलंकृत किया। विश्व भर में फैले उनके मिशनरी के कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था, उन्होंने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को भारतीय गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया जो उनके विशाल हृदय को दर्शाता है। १९८५ में उन्हें मेडल आफ फ्रीडम दिया गया। पीडि़त मानवता की सेवा के लिए उन्हें संपूर्ण विश्व में अलग -अलग सम्मानों से सम्मानित किया गया। मदर टेरेसा के सम्मान में भारत सरकार द्वारा डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है।


अपने जीवन के अंतिम समय में मदर टेरेसा पर कई तरह के आरोप भी लगे. उन पर गरीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनाने का आरोप लगा। भारत में भी प. बंगाल और कोलकाता जैसे राज्यों में उनकी निंदा हुई. मानवता की रखवाली की आड़ में उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था. लेकिन कहते हैं ना जहां सफलता होती है वहां आलोचना तो होती ही है.्रवर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गईं।. वही उन्हें पहला हार्ट अटैक आ गया। इसके बाद साल 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया। लगातार गिरती सेहत की वजह से 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक 'मिशनरीज ऑफ चैरिटीÓ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में लिप्त थीं। समाज सेवा और गरीबों की देखभाल करने के लिए जो आत्मसमर्पण मदर टेरेसा ने दिखाया उसे देखते हुए पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में मदर टेरेसा को धन्य घोषित किया था।

मदर टेरेसा भले ही जन्म से भारतीय न हों मगर वह भारत में जन्में किसी अन्य भारतीय से ज्यादा भारत मां की सच्ची संतान हैं। इस प्रसंग में हमें महाभारत के अप्रतिम महारथी कर्ण का स्मरण हो आता है। बेचारा कर्ण, अविवाहित मां की सन्तान कर्ण, जिसे लोकलाज के भय से मां नदी की गोद में विसर्जित कर देती है। संयोग से वह  शूद्र को मिल जाता है। सन्तानहीन शूद्र ही उसका पालन-पोषण करता है। हीरा तो हीरा ही रहता है, चाहे वह जौहरी के पास रहे अथवा धूल में पड़ा हो। वह स्वयं कह देता है कि वह हीरा है।परिस्थितियां कर्ण का साथ देती हैं, दुर्योधन उसे राजा बना देता है, यह बाद की बात है, किन्तु रूढिय़ों में जकड़ा भारतीय उसकी योग्यता को न देख कर उसके कुल, गोत्र आदि को देखता है। उसे राजकुमारों के साथ किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने के सर्वथा अयोग्य समझा जाता है। तब कर्ण कह उठता है-''मैं शूद्र हूं, शूद्रपुत्र हूं या जो कोई भी हूं, इसमें मेरा क्या दोष ? किसी भी कुल में जन्म लेना दैवाधीन है, जबकि पौरुष का परिचय देना मेरे अपने वश में हैं।ÓÓकर्ण कहता है कि किसी भी खानदान में जन्म लेना मेरे वश में नहीं है। हां, वीरता का परिचय देना मेरे वश में है। नीच कुल में जन्म लेना मेरी अयोग्यता का परिचायक कैसे हो सकता है, क्योंकि यह मेरे वश में नहीं है, जो मेरे वश में है, उसकी बात करो। मां टेरेसा का कथन था, ''मेरा जन्म भारत में नहीं हुआ, किन्तु मैं स्वयं भारतीय बन गयी हूं।Óइन दोनों में किसे महान कहा जाएगा, निश्चय ही जो अपने कर्मों से भारतीय बना हो।
परम्परागत रूप में सम्पन्नता प्राप्त होने पर यदि कोई उन्नति कर भी ले, तो इसमें उसे अधिक श्रेय नहीं दिया जा सकता, किन्तु जो स्वयं अपने बलबूते पर उन्नति करे, वह निश्चय ही महान है।यदि हम धार्मिक दुराग्रहों से मुक्त होकर विचार करें, तो कर्ण सभी पाण्डवों से कहीं अधिक महान प्रतीत होता है। मां टेरेसा तो सभी जन्मजात भारतीयों से महान थीं ही। इसे भी एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि मां टेरेसा कितने ही मातृ-परित्यक्त कर्णों की मां थीं। उनके ममतामय हाथों का; उनके वात्सल्य का सम्बल प्राप्त कर कितने ही कर्णों को एक नया जीवन मिला।



प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी

shakshiyat nelson mandela


Saturday 14 June 2014

करके देखिए अच्छा लगता है.

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अंतर्राष्ट्रीय रक्तदान दिवस 14 जून
आज का युवा जागरूक है और उसकी जागरूकता और जोश को अब हम हर पल महसूस कर सकते हैं। हाल ही में भारत में हुए इलेक्शन में भी देश की इस युवा आबादी ने अपने वोट की कीमत समझते हुए सरकार को चुना है और इसके पीछे सबसे बड़ी ताकत है अवेयरनेस की। जिसका असर अब हर क्षेत्र में देखने को मिलने लगा है। अक्सर खून के रिश्तों को एक परिवार से जोड़कर देखा जाता है लेकिन यह रिश्ता उन लोगों के बीच भी बन जाता है। जब एक ने खून देकर दूसरे को जिंदगी दी हो, और यह रिश्ता ना ही जन्म से जुड़ा होता है, न मजहब से और न किसी स्वार्थ से लेकिन जिंदगी को देने वाला वह अनजाना जरूरतमंद परिवार के लिए अपना बन जाता है। यह रिश्ता जुड़ता है खून से, यह रिश्ता जुड़ता है रक्त दान से। ब्लड डोनेशन या रक्तदान के बारे में जानते तो हम सभी हैं लेकिन इसके प्रति जागरूकता बढ़ाने में सोशल मीडिया जनरेशन ने महती भूमिका निभाई है, आज किसी को ब्लड की जरूरत होती है, तो वॉट््सएप, फेसबुक जैसी सोशल साइट्स के माध्यम से दोस्तों के बीच यह मैसेज दे देते हैं और जरूरतमंद की जान भी बच जाती है। यह है सोशल मीडिया की ताकत।
विश्व रक्तदान दिवस हर साल 14 जून को मनाया जाता है। ब्लड ग्रुप सिस्टम की खोज करने वाले कार्ल लेंसियर के जन्मदिन की खुशी में यह दिन हर साल सेलिब्रेट किया जाता है।
अभी भी है दरकार
१९९७ में वल्र्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन ने विकसित देशों के लिए स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए एक लक्ष्य निर्धारित किया था। १२४ में से महज ४९ देश उस लक्ष्य को सर्वे के अनुसार पूरा कर पाए थे। अस्पतालों में हर दिन रक्तदान की जरूरत होती है। एक साल में 8० मिलीयन यूनिट ब्लड डोनर और पेड डोनर के द्वारा किया जाता है। जो जरूरत की तुलना में काफी कम है। विकासशील देशों में यह स्थिति और भी चिंताजनक है। क्योंकि वहां महज ३८ फीसदी रक्तदान होता है जबकि दुनिया की ८२ फीसदी आबादी वहां निवास करती है, जो रक्तदान की कमी के कारण अधिकांशत: पेड डोनर पर ही निर्भर है। भारत में रक्तदान की आवश्यकता पर पूर्व स्वास्थ्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने भी कुछ समय पहले कहा था कि हिंदुस्तान जैसी बड़ी आबादी वाले देश में एक सप्ताह के रक्तदान शिविर से कुछ नहीं होगा। हमें लाखों-करोड़ यूनिट ब्लड डोनेशन की हर रोज आवश्यकता है। दुनिया में ८२ देश ऐसे हैं जहां पर 1००० की आबादी पर महज १० रक्तदाता हैं।
महिलाएं यहां हैं पीछे
आज देश में महिलाएं हर फील्ड में बेहतर काम कर रही हैं लेकिन रक्तदान जैसे महान कार्य में उनका योगदान काफी कम है। डब्ल्यूएचओ की ग्लोबल डाटावेस ऑन ब्लड सेफटी रिपोर्ट के मुताबिक हिंदुस्तान में होने वाले रक्तदान में 100 फीसदी में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ  १० फीसदी है। बाकी ९० फीसदी रक्तदान सिर्फ पुरु ष करते हैं।

कौन कितना करता है रक्तदान
वल्र्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक पूरी दुनिया में ब्लड डोनेड करने वालों में ३० फीसदी महिलाएं हैं। ६ फीसदी रक्तदाता 1८ वर्ष से कम उम्र के हैं।इनमें २७ फीसदी ब्लड डोनर १८- २४ साल की उम्र के बीच के हैं तो ३८ फीसदी रक्तदाताओं की उम्र  २५- ४४ साल के बीच है। ४५-६४ की उम्र में २६ फीसदी रक्तदाता शामिल हैं जबकि ६५ से अधिक उम्र के ३ प्रतिशत रक्तदाता शामिल हैं।

कौन कितना कर रहा रक्तदान
रक्तदान को लेकर अब लोगों में जागरूकता का ही परिणाम है कि दुनिया के ६२ देशों में रक्तदान की पूरी 100 फीसदी जरूरत को स्वैच्छिक रक्तदाताओं से पूरा किया जा रहा है।जबकि २००२ में यह संख्या महज ३९ फीसदी देशों की थी।  ४० देश अपनी २५ फीसदी रक्त की कमी को स्वैच्छिक रक्तदान के माध्यम से पूरा करने में सक्षम हैं अब।
१६१ में से १२० मतलब ७५ फीसदी देशों ने नेशनल ब्लड पॉलिसी बना ली है जबकि २००४ में यह आंकड़े १६२ में से ९८ यानी महज ६० फीसदी थे। ३० देशों ने २००८ में ही नेशनल ब्लड पॉलिसी का निर्माण किया।
भारत की बदली है तस्वीर
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक रक्तदान की तस्वीर जिन देशों में बदली है उनमें हिंदुस्तान भी एक है। पिछले कुछ सालों में बड़ी जागरूकता का ही असर है कि २००७ में ३.६ मिलीयन स्वैच्छिक रक्तदाता भारत में थे जबकि २००८ में ही यह संख्या बढ़कर ४.६ मिलीयन हो गई। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से बढ़ी स्वैच्छिक रक्तदाताओं की संख्या वाले देशों में २००७ के २१ फीसदी की तुलना में २००८ में ९४ फीसदी स्वैच्छिक रक्तदाता बढ़े हैं। अफगानिस्तान में १५ फीसदी रक्तदाताओं की जगह २००८ में ८८ फीसदी हो गई है।
ररक्तदान ऐसे भी -
स्वैच्छिक रक्तदान से इतर यदि फैमिली, रिप्लेसमेंट या पेड ब्लड डोनेशन की यदि बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक गरीब देशों में यह ३६ प्रतिशत है। सामान्य आर्थिक स्थिति वाले देशों में २७ फीसदी जबकि अमीर देशों में ०.३ फीसदी है।
स्वच्छ रक्तदान भी जरूरी
रक्तदान करना बेहतर है लेकिन वह स्वच्छ और सुरक्षित हो तभी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्र्ट के मुताबिक दुनिया के ३९ देशों में रक्तदान के पहले किए जाने वाले रक्त परीक्षण ट्रांसमयूशन ट्रांसमिशेवल इंफेक्शन टीटीआईएस की जांच की सुविधा नहीं है।
कहां कितना रक्तदान
रक्तदान की स्थिति पूरी दुनिया में अलग-अलग है।
९१ फीसदी रक्तदान अमीर देशों में, 72 फीसदी रक्तदान सामान्य आर्थिक स्थिति वाले देशों में और गरीब देशों में फीसदी लोग रक्तदान करते हैं।
सेफ ब्लड सेव मदर
इस बार इंटरनेशनल ब्लड डोनेशन डे सेफ ब्लड सेव मदर की थीम पर मनाया जा रहा है। जिसका उद्देश्य पूरी दुनिया में मातृत्व के दौरान होने वाली माताओं की मृत्यु में कमी लाने के लिए जागरूकता लाना है। क्योंकि हर दिन 800 माताएं बच्चे को जन्म देने के दौरान होने वाले कॉमप्लीकेशन के कारण मौत की नींद सो जाती हैं। साथ ही रक्तदान करके लोगों को जिंदगी का तौहफा देेने के लिए धन्यवाद देने और प्रोत्साहित करने के लिए है।
सोशल मीडिया ने बढ़ाई जागरूकता
फेसबुक, ट्वीटर, वॉट्सएप जैसी सोशल नेटर्विर्कंग साइट्स को अक्सर यंगस्टर द्वारा समय खराब करने वाले साधन के तौर पर देखा जाता है, लेकिन यह सोशल प्लेटफार्म लोगों की जिंदगी भी बचा रहा है। ब्ल्ड डोनर अवेयरनेस को लेकर लोकल से लेकर ग्लोबल लेवर पर फेसबुक पेज पर डिफरेंट वॉलेंटियर ग्रुप के माध्यम से यंगस्टर अवेयरनेस फैला रहे हैं। ऐसे में ब्लड बैंक के चक्कर काटने के बजाय एफबी, या वॉट्सएप पर कॉलेज गोइंग यूथ घटना का ब्यौरा दे देते हैं और लिख देते हैं कि किस ब्लड ग्रुप की आवश्यकता है और उसके बाद एफबी पर फैली इस खबर के माध्यम से जल्द ही रिस्पॉन्स मिल जाता है। ऐसे में जान भी आसानी से बच जाती है। इसलिए अब ब्ल्ड डोनेशन ग्रुप सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर पूरा कैंपेन चला रहे हैं। 222.ड्ढद्यशशस्र.ष्श.ह्वद्म के फेसबुक पर मौजूद ब्लड डोनेशन के पेज को अब तक 1 लाख 51 हजार से ज्यादा लाइक मिल चुके हैं, इसी तरह ट्विटर पर भी इस ग्रुप के 8 हजार से ज्यादा फॉलोअर हैं। डेमी एंड कॉपर एडवरटाइजिंग एंड डीसी इंटरएक्टिव ग्रुप द्वारा की गई स्टडी में सामने आया कि सोशल मीडिया पर मौजूद मेडिकल रिलेटेड इन्फॉर्मेशन को 18 से 25 साल के युवा सही मानते हैं, इसलिए ब्लड डोनेशन से युवाओं को जोडऩे के लिए फेसबुक और ट्विटर पर कैंपेनिंग एक बेहतर माध्यम है। फेसबुक पर ब्ल्ड डोनर ग्रुप सोशल ब्लड के फाउंडर कार्तिक नारालशेट्टी के मुताबिक मेरे पड़ोसी एक भारतीय परिवार को रोजाना ब्ल्ड की जरूरत होती थी, क्योंकि उनकी 4 साल की बेटी थैलीसीमिया की मरीज थी। वर्तमान समय में 40 मिलीयन से ज्यादा भारतीय इस बीमारी के मरीज हैं जिन्हें समय-समय पर रक्त की जरूरत होती है। 2011 से अब तक 41हजार 64९ लोगों को अपने इस अभियान का हिस्सा बना चुके कार्तिक के मुताबिक लोग कहानी से प्रेरणा लेते हैं फैक्ट से नहीं। कार्तिक के मुताबिक हर रोज 100 लोग खून की कमी से मर रहे हैं, इसलिए हमें रक्तदान करना चाहिए इसके बजाय मेरे स्कूल में एक बच्चे को ब्लड की जरूरत थी, मैंने ब्लड देकर उसकी जिंदगी बचाई इससे लोग ज्यादा प्रेरित होंगे।
 पहला ब्लड बैंक
ब्लड डोनेशन के बाद ब्ल्ड और ब्ल्ड कंपोनेंट को ब्ल्ड बैंक में सहेजकर रखने की प्रक्रिया होती है। आज ब्लड बैंक दुनिया में जगह-जगह मौजूद हैं लेकिन दुनिया में पहला ब्लड बैंक अमेरिका के न्यूयार्क शहर के माउंट सिनाई हॉस्पिटल में रिचर्ड लेविसन ने स्थापित किया था।
एप खोजेगा ब्ल्ड डोनर
ब्लड डोनेशन के लिए एफबी, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया के साथ ही अब मोबाइल एप का भी प्रयोग होने लगा है। देश में ब्लड डोनेशन की फील्ड में पिछले 8 साल से काम करने वाले ऑर्गनाइजेशन द्घह्म्द्बद्गठ्ठस्रह्य२ह्यह्
वश्चश्चशह्म्ह्ल.शह्म्द्द ने एक मोबाइल एप लांच किया है। जिसे एंड्रायड, जावा, विंडो और आईओएस प्लेटफार्म पर अपने स्मार्टफोन में लांच किया जा सकता है। इस एप के माध्यम से व्यक्ति देश के किसी भी प्रदेश के किसी शहर में मौजूद डोनर से कॉन्टेक्ट कर सकता है, डोनर के तौर पर रजिस्ट्रेशन करने से लेकर कॉल, एसएमएस की सर्विस भी डोनर के लिए मौजूद है
थैंक्यू अंकल....
थैलेसीमिया पीडि़त एक बच्ची जब टेलीविजन पर आकर थैंक्यू अंकल बोलती है ब्ल्ड डोनेशन के लिए तो वह इमोशनल अपील दिल को छू जाती है। थैलेसीमिया की बीमारी की एड कैंपेन को लेकर बड़े अवेयरनेस के कारण अब लोग आगे बढ़कर ब्लड डोनेशन कर रहे हैं। ऐसें में टीवी पर जब कोई सेलिब्रिटी यह कहती है करके देखिए अच्छा लगता है, तो वह भी कितने ही लोगों को रक्तदान के लिए एक मार्मिक अपील होती है। रक्तदान के प्रति यह जागरूरक और संवेदनशील अभियान ही रक्तदान के लिए प्रेरित कर रहा है।

ग्रुपिंग ने भी किया अपील
एक इंजीनियरिंग स्टूडेंट ने जब अपने हॉस्टल में रहकर साथ पढऩे वाले बैचमेट को ब्लड देकर बचाया तो उसके ग्रुप के कितने ही दोस्त प्रेरित हुए ब्ल्ड डोनेड करने के लिए। यानी की यंगस्टर की यह कॉलेज गैंग भी ब्ल्ड डोनेशन को बढ़ा रही है। लोकल लेवल पर अलग-अलग युवा संगठन से लेकर सामाजिक संगठन भी ब्लड डोनेशन कैंप के माध्यम से लोगों को ब्लड डोनेशन के लिए प्रेरित करते हैं।

Friday 6 June 2014

अनूठा रिश्ता जो है खास





रक्षाबंधन वह पावन पर्व  है जिसका भाई -बहन के रिश्ते से बड़ा गहरा नाता है। देखने में तो यह रिश्ता �ाी हमसे जुड़े दूसरे रिश्तों की ही तरह है, लेकिन इसमें कुछ तो �ाास है जो इसे उनसे जुदा और अलग बनाता है।

रेशम की कच्ची डोर कितना कुछ कहती है यदि उसके �ाावों को समझने का प्रयास किया जाए। इसमें एक भाई के प्रति बहन का स्नेह दि�ाता है तो बहन के प्रति �ााई के मन में भरा प्यार, कर्तव्य और परवाह के रूप में नजर आता है। बचपन में छोटी-छोटी बातों पर होती है तकरार और फिर शाम तक संग हो जाना।
    वाकई इस रिश्ते की महक हमेशा यूं ही बनी रहे तो कितना अच्छा लगता है। कभी-क�ाी तो लगता है वह बचपन वापस लौट आए । वैसे भी हर राखी पर यूं ही हम पुरानी यादों में खो ही जाते हैं, जो क�ाी आ�ाों में नमी तो कभी चेहरे पर मुस्कान बि�ोर जाती है।

-कितना अलग होता है यह रिश्ता
-हर नाते से जुदा रहता है
-नि: स्वार्थ प्रेम इसमें होता है
-बिना तकरार के अधूरा सा लगता है
-क�ाी गुस्सा  क�ाी शरारत तो कभी प्यार
-कभी सारी दुनिया इस रिश्ते में सिमटी लगती है
-कितना अजीब होता है  यह रिश्ता
-यह कहलाता है भाई - बहन का रिश्ता      

                                                      सर्जना चतुर्वेदी
                                                        

Tuesday 27 May 2014


लगन से पायी तृप्ति ने सफलता


हायर सेकेंडरी परीक्षा में सतना की तृप्ति अव्वल
हर दर्द के पीछे छिपी होती हैं खुशियां

जिंदगी में यदि दर्द मिला है तो दवा भी मिलेगी... लेकिन ए इंसा तू कभी हारना मत... इन लाइनों में छिपी है प्रदेश की बिटिया तृप्ति त्रिपाठी की लिखी सफलता की इबारत। कहते हैं कि यदि हमारे साथ कुछ बुरा हो तो हमें उसके पीछे छिपी अच्छाई को देखने की कोशिश करनी चाहिए और बिना थके सिर्फ अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करना चाहिए। इस बात को मूल मंत्र मानकर प्रदेश के टॉप टेन में जगह बनाने का सपना पलकों पर संजोकर चलने वाली तृप्ति ने माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा आयोजित 12वीं की बोर्ड परीक्षा में  पूरे प्रदेश में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। सरस्वती शिशु मंदिर सतना की छात्रा तृप्ति ने 500 में से 488 अंक लाकर ९७.6 फीसदी अंक के साथ  सफलता प्राप्त की है। तृप्ति ने इससे पहले 10वीं की बोर्ड परीक्षा में भी ९३ फीसदी अंकों के साथ परीक्षा में सफलता प्राप्त की थी। प्रदेश की इस युवा प्रतिभा ने अपनी सफलता और भविष्य के सपनों को रोजगार और निर्माण से साझा किया।
माध्यमिक शिक्षा मंडल की हायर सेकेंडरी की परीक्षा में आर्ट संकाय में प्रथम आने पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद।
यह तो तय था टॉप टेन में रहूंगी
यदि कोई ख्वाव देखो तो उसे पूरा करने के लिए तय रणनीति के साथ काम करना होता है। तृप्ति ने भी यही किया। तृप्ति ने बताया कि 11वीं की परीक्षा का परिणाम आने के बाद मैंने यह तय कर लिया था, कि मुझे प्रदेश की प्रावीण्य सूची में अपनी जगह बनानी है। उस दिन से ही मैंने अपनी पढ़ाई पर फोकस कर लिया था। तृप्ति कहती हैं कि घटों में पढ़ाई करने के बजाय टॉपिक के आधार पर योजना बनाकर अपनी पढ़ाई की। इस दौरान मुझे मेरे स्कूल के शिक्षकों का भी पूरा सहयोग मिला, जैसे कि यदि मैँ फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स को घर में ज्यादा देर पढऩे के कारण हिंदी अंग्रेजी को पूरा समय नहीं  दे पाती थी, तो मेरे टीचर्स ने मुझे किसी भी सेक्शन में जाकर क्लास अटैंड करने की परमीशन दे रखी थी, जिससे में आसानी से सुविधा अनुसार पढ़ाई कर सकती थी।
अपनों के साथ के बिना नहीं हो सकता था मुमकिन
तृप्ति कहती हैं कि प्रदेश में अव्वल आने के पीछे मेरी मेहनत के साथ-साथ मेरे परिवार, दोस्तों और स्कूल के टीचर्स का भी पूरा सहयोग मुझे मिला। भले ही मेरे माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्य पढ़ाई में मेरी मदद नहीं कर सकते थे, लेकिन आर्थिक अभाव के बावजूद मुझे कोई कमी  महसूस नहीं होने दी और हर कदम पर मेरा मोरल सपोर्ट किया। तृप्ति कहती हैं कि अक्सर परिवार और समाज के लोग यह कहते हैं कि लड़की बड़ी हो गई है खाना बनाना सिखाओ घर के काम सिखाओ और यह बातें मैंने भी सुनी लेकिन मेरे परिवार के साथ के कारण ही इन बातों को इग्नोर करते हुए मैंने अपनी पढ़ाई की। तृप्ति कहती हैं कि पढ़ाई के कारण घर का कोई काम नहीं करती थी क्योंकि मुझे पूरा सहयोग अपने परिवार का मिला।

आलोचना को चुनौती के रूप में लिया
हमेशाा सबकुछ अच्छा होता रहे यह संभव नहीं होता लेकिन बुराई के पीछे भी कुछ अच्छाई छिपी होती है। तृप्ति बताती है कि मेरी कोचिंग घर से काफी दूर थी, इसलिए पैदल आने-जाने के कारण थकान की वजह से फिजिकल पैन बना रहता था। साथ ही ब्लड की कमी की वजह से कमजोर रहती थी, जिससे अक्सर लोग यह कहा करते थे कि तुम तो साल भर बीमार रहती हो पढ़ाई कैसे करोगी। तृप्ति कहती है कि शायद यह तकलीफ और आलोचना नहीं मिलती तो मैं भी कुछ खास नहीं कर पाती। इन बातों ने ही मुझे मेरे लक्ष्य के प्रति और दृढ़ बनाया, इसलिए मुझे लगता है कि जो भी होता है
अच्छे के लिए होता है।

सिविल सर्विस ही है मेरी मंजिल
तृप्ति ने अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में बताया कि मैं शुरू से ही सिविल सर्विस में जाना चाहती हूं क्योंकि यह एक ऐसी सर्विस है, जिसमें आप सीधे तौर पर लोगों की बेहतरी के लिए काम कर सकते हो। इसलिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई बिट्स पिलानी से पूरी करने के बाद सिविल सर्विस में जाने की इच्छा रखती हैं। प्रदेश की यह हौनहार बिटिया आर्थिक अभाव के चलते प्रदेश सरकार से भी यथासंभव सहयोग की अपेक्षा रखती है।
ईश्वर लेता है परीक्षा
निजी ट्रांसपोर्ट फर्म में काम करने वाले तृप्ति के पिता योगेन्द्र त्रिपाठी समेत तृप्ति का पूरा परिवार अपनी बेटी की इस सफलता से काफी खुश है। तृप्ति कहती है कि कई बार जब निराशा होती थी, या कुछ अच्छा नहीं लगता था तो अपनों से बातें साझा करती थी, जिससे मुझे संबल मिलता था। तृप्ति कहती है कि घर में अक्सर लोग कहा करते थे कि ईश्वर तुमहारी परीक्षा ले रहा है और तुमहें उसमें पास होना है।
टॉपर टिप्स
तृप्ति कहती है कि मैंने आन्सर शीट में हर सवाल का जवाब हैडिंग बनाकर फिर उसे विस्तार से लिखने का प्रयास किया। हिंदी और इंग्लिश के पेपर में अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए प्रसिद्ध कोटेशन का प्रयोग किया। तृप्ति कहती हैं कि किताबी भाषा लिखने के बजाय हर उत्तर को हमें अपने शब्दों में लिखना चाहिए। तृप्ति ने बताया कि स्कूल के दिनों में उन्होंने 6 से 7 घंटे पढ़ाई की और स्कूल की छुट््िटयां शुरू होते ही यह 15 से सोलह घंटे तक की।
पेपर लेट नहीं होता तो शायद इतना रिवीजन नहीं होता
12वीं का पेपर लीक होने की वजह से डिले होने के कारण तृप्ति कहती है कि पहले तो काफी गुस्सा आया था लेकिन इसका भी एक फायदा यह हुआ कि मैं ज्यादा बेहतर ढंग से रिवीजन कर सकी।
मुश्किलों से ना घबराएं
तृप्ति युवाओं को संदेश देते हुए कहती हैं कि कभी भी मुश्किलों के सामने हार नहीं आना चाहिए
और अपनी तरफ से हर काम को पूरी ईमानदारी और आत्मविश्वास के साथ किया जाए तो हर मुकाम को हासिल किया जा सकता है।
प्रस्तुृति सर्जना चतुर्वेदी

Saturday 24 May 2014

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।

जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए।

गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

Friday 23 May 2014

हर दर्द के पीछे छिपी होती हैं खुशियां

 ROJGAR AUR NIRMAN 26 MAY 2014

लगन से पायी तृप्ति ने सफलता
हायर सेकेंडरी परीक्षा में सतना की तृप्ति अव्वल
हर दर्द के पीछे छिपी होती हैं खुशियां

जिंदगी में यदि दर्द मिला है तो दवा भी मिलेगी... लेकिन ए इंसा तू कभी हारना मत... इन लाइनों में छिपी है प्रदेश की बिटिया तृप्ति त्रिपाठी की लिखी सफलता की इबारत। कहते हैं कि यदि हमारे साथ कुछ बुरा हो तो हमें उसके पीछे छिपी अच्छाई को देखने की कोशिश करनी चाहिए और बिना थके सिर्फ अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करना चाहिए। इस बात को मूल मंत्र मानकर प्रदेश के टॉप टेन में जगह बनाने का सपना पलकों पर संजोकर चलने वाली तृप्ति ने माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा आयोजित 12वीं की बोर्ड परीक्षा में  पूरे प्रदेश में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। सरस्वती शिशु मंदिर सतना की छात्रा तृप्ति ने 500 में से 488 अंक लाकर ९७.6 फीसदी अंक के साथ  सफलता प्राप्त की है। तृप्ति ने इससे पहले 10वीं की बोर्ड परीक्षा में भी ९३ फीसदी अंकों के साथ परीक्षा में सफलता प्राप्त की थी। प्रदेश की इस युवा प्रतिभा ने अपनी सफलता और भविष्य के सपनों को रोजगार और निर्माण से साझा किया।
माध्यमिक शिक्षा मंडल की हायर सेकेंडरी की परीक्षा में आर्ट संकाय में प्रथम आने पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद।
यह तो तय था टॉप टेन में रहूंगी
यदि कोई ख्वाव देखो तो उसे पूरा करने के लिए तय रणनीति के साथ काम करना होता है। तृप्ति ने भी यही किया। तृप्ति ने बताया कि 11वीं की परीक्षा का परिणाम आने के बाद मैंने यह तय कर लिया था, कि मुझे प्रदेश की प्रावीण्य सूची में अपनी जगह बनानी है। उस दिन से ही मैंने अपनी पढ़ाई पर फोकस कर लिया था। तृप्ति कहती हैं कि घटों में पढ़ाई करने के बजाय टॉपिक के आधार पर योजना बनाकर अपनी पढ़ाई की। इस दौरान मुझे मेरे स्कूल के शिक्षकों का भी पूरा सहयोग मिला, जैसे कि यदि मैँ फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स को घर में ज्यादा देर पढऩे के कारण हिंदी अंग्रेजी को पूरा समय नहीं  दे पाती थी, तो मेरे टीचर्स ने मुझे किसी भी सेक्शन में जाकर क्लास अटैंड करने की परमीशन दे रखी थी, जिससे में आसानी से सुविधा अनुसार पढ़ाई कर सकती थी।
अपनों के साथ के बिना नहीं हो सकता था मुमकिन
तृप्ति कहती हैं कि प्रदेश में अव्वल आने के पीछे मेरी मेहनत के साथ-साथ मेरे परिवार, दोस्तों और स्कूल के टीचर्स का भी पूरा सहयोग मुझे मिला। भले ही मेरे माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्य पढ़ाई में मेरी मदद नहीं कर सकते थे, लेकिन आर्थिक अभाव के बावजूद मुझे कोई कमी  महसूस नहीं होने दी और हर कदम पर मेरा मोरल सपोर्ट किया। तृप्ति कहती हैं कि अक्सर परिवार और समाज के लोग यह कहते हैं कि लड़की बड़ी हो गई है खाना बनाना सिखाओ घर के काम सिखाओ और यह बातें मैंने भी सुनी लेकिन मेरे परिवार के साथ के कारण ही इन बातों को इग्नोर करते हुए मैंने अपनी पढ़ाई की। तृप्ति कहती हैं कि पढ़ाई के कारण घर का कोई काम नहीं करती थी क्योंकि मुझे पूरा सहयोग अपने परिवार का मिला।

आलोचना को चुनौती के रूप में लिया
हमेशाा सबकुछ अच्छा होता रहे यह संभव नहीं होता लेकिन बुराई के पीछे भी कुछ अच्छाई छिपी होती है। तृप्ति बताती है कि मेरी कोचिंग घर से काफी दूर थी, इसलिए पैदल आने-जाने के कारण थकान की वजह से फिजिकल पैन बना रहता था। साथ ही ब्लड की कमी की वजह से कमजोर रहती थी, जिससे अक्सर लोग यह कहा करते थे कि तुम तो साल भर बीमार रहती हो पढ़ाई कैसे करोगी। तृप्ति कहती है कि शायद यह तकलीफ और आलोचना नहीं मिलती तो मैं भी कुछ खास नहीं कर पाती। इन बातों ने ही मुझे मेरे लक्ष्य के प्रति और दृढ़ बनाया, इसलिए मुझे लगता है कि जो भी होता है
अच्छे के लिए होता है।

सिविल सर्विस ही है मेरी मंजिल
तृप्ति ने अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में बताया कि मैं शुरू से ही सिविल सर्विस में जाना चाहती हूं क्योंकि यह एक ऐसी सर्विस है, जिसमें आप सीधे तौर पर लोगों की बेहतरी के लिए काम कर सकते हो। इसलिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई बिट्स पिलानी से पूरी करने के बाद सिविल सर्विस में जाने की इच्छा रखती हैं। प्रदेश की यह हौनहार बिटिया आर्थिक अभाव के चलते प्रदेश सरकार से भी यथासंभव सहयोग की अपेक्षा रखती है।
ईश्वर लेता है परीक्षा
निजी ट्रांसपोर्ट फर्म में काम करने वाले तृप्ति के पिता योगेन्द्र त्रिपाठी समेत तृप्ति का पूरा परिवार अपनी बेटी की इस सफलता से काफी खुश है। तृप्ति कहती है कि कई बार जब निराशा होती थी, या कुछ अच्छा नहीं लगता था तो अपनों से बातें साझा करती थी, जिससे मुझे संबल मिलता था। तृप्ति कहती है कि घर में अक्सर लोग कहा करते थे कि ईश्वर तुमहारी परीक्षा ले रहा है और तुमहें उसमें पास होना है।
टॉपर टिप्स
तृप्ति कहती है कि मैंने आन्सर शीट में हर सवाल का जवाब हैडिंग बनाकर फिर उसे विस्तार से लिखने का प्रयास किया। हिंदी और इंग्लिश के पेपर में अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए प्रसिद्ध कोटेशन का प्रयोग किया। तृप्ति कहती हैं कि किताबी भाषा लिखने के बजाय हर उत्तर को हमें अपने शब्दों में लिखना चाहिए। तृप्ति ने बताया कि स्कूल के दिनों में उन्होंने 6 से 7 घंटे पढ़ाई की और स्कूल की छुट््िटयां शुरू होते ही यह 15 से सोलह घंटे तक की।
पेपर लेट नहीं होता तो शायद इतना रिवीजन नहीं होता
12वीं का पेपर लीक होने की वजह से डिले होने के कारण तृप्ति कहती है कि पहले तो काफी गुस्सा आया था लेकिन इसका भी एक फायदा यह हुआ कि मैं ज्यादा बेहतर ढंग से रिवीजन कर सकी।
मुश्किलों से ना घबराएं
तृप्ति युवाओं को संदेश देते हुए कहती हैं कि कभी भी मुश्किलों के सामने हार नहीं आना चाहिए
और अपनी तरफ से हर काम को पूरी ईमानदारी और आत्मविश्वास के साथ किया जाए तो हर मुकाम को हासिल किया जा सकता है।
प्रस्तुृति सर्जना चतुर्वेदी

Thursday 22 May 2014

आशा और आत्मविश्वास से हासिल किया मुकाम

 
आशा और आत्मविश्वास से हासिल किया मुकाम

मध्य प्रदेश में 12वीं की परीक्षा में दृष्टिहीन सृष्टि तिवारी अव्वल

सपने दे�ाने के लिए आं�ाों में रोशनी हो यह जरूरी नहीं होता बल्कि बुलंद हौसलों की जरूरत होती है।   ताकि उन सपनों को हकीकत में बदला जा सकता है। इसलिए कहा �ाी गया है मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है, पं�ाों से कुछ नहीं होता हौंसलों से उड़ान होती है। ऐसे ही बुलंद हौसलों के बल पर प्रदेश की हैलन किलर दमोह जिले की दृष्टिहीन छात्रा सृष्टि तिवारी ने इस मान्यता को सच कर दिखाया है। सृष्टि �ाले ही देख नहीं सकती, लेकिन दुनिया जीतने का जज्बा रखती है। माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा आयोजित 12वीं की बोर्ड परीक्षा में कला समूह में सृष्टि ने पूरे प्रदेश में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक शाला दमोह की छात्रा ने परीक्षा में 500 में से 481 अंक हासिल किए है। पढ़ाई और संगीत सुनने में रुचि रखने वाली सृष्टि ने 10वीं की बोर्ड परीक्षा में भी दृष्टि बाधित संवर्ग में प्रदेश में शीर्ष स्थान हासिल किया था। प्रदेश की इस प्रति�ाा के प्रदर्शन से प्र�ाावित होकर प्रदेश के मु�यमंत्री


शिवराज सिंह चौहान ने �ाी सृष्टि को 2 ला�ा रुपए देने की घोषणा की थी। तब जल संसाधन मंत्री जयंत मलैया और स्कूली शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस ने हाल ही में सृष्टि के घर जाकर उसे 2 ला�ा रुपए का चेक प्रदान करते हुए उसे उसकी इस सफलता पर बधाई दी। प्रदेश की इस युवा प्रति�ाा ने अपनी सफलता और �ाविष्य के सपनों को  रोजगार और निर्माण से साझा किया। माध्यमिक शिक्षा मंडल की हायर सेकेंडरी की परीक्षा में आर्ट संकाय में प्रथम आने पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद
सिर्फ ज्ञान अर्जित करने के लिए करती हूं पढ़ाई
सृष्टि कहती हैं कि मैं अच्छे नंबर से पास होना चाहती थी और उसके लिए पूरी मेहनत भी की थी लेकिन यह नहीं सोचा था कि पूरे संकाय में प्रदेश में सबसे ज्यादा अंक लाऊंगी। सृष्टि कहती है कि में सिर्फ और सिर्फ ज्ञान अर्जित करने के लिए पढ़ाई करती हूं कुछ पाने के लिए नहीं, क्योंकि मेरा मानना है कि यदि आप कुछ पाने के लिए कुछ करते हो तो सिर्फ एक दायरे में सिमट कर रह जाते हो।
यह सफलता सिर्फ मेरी नहीं
रोजाना 5 घंटे पढ़ाई करने वाली सृष्टि कहती है किजब स्कूल में शिक्षक बोर्ड पर कुछ लिखाकर पढ़ा रहे हों तब मैं पढ़ नहीं सकती हूं और न ही खुद देखकर पढ़ाई कर सकती हूूं। मेरी मेहनत और लगन के साथ ही मेरे नाना-नानी की मेहनत और लगन �ाी इस सफलता की नींव का पत्थर है। अपने ननिहाल


में रहकर पढ़ाई कर रही सृष्टि बताती हैं कि मामा सुधीर व संजय नोट्स बनाते थे और इन नोट्स को पढ़कर नाना-नानी सुनाते थे। वे कहते हैं कि सृष्टि की खूबी है कि वह एक बार जिस बात को सुन लेती है उसे कभी भूलती नहीं है। यही कारण है कि उसे जो भी अध्याय सुनाया गया, उसे वह याद रहा और परीक्षा में उसी के मुताबिक नतीजा आया है। शिक्षा विभाग द्वारा परीक्षा के दौरान उसकी कॉपी लिखने के लिए सहायक उपलब्ध कराया गया था। सृष्टि कहती है कि उसके जैसे हर जरूरतमंद को इसी तरह का प्यार मिले तो वह भी बेहतर नतीजे दे सकता है। सृष्टि की मां सुनीता तिवारी गृहिणी और पिता सुनील तिवारी सरकारी कर्मचारी है।
आईएएस बनकर करना चाहती हूं मदद
जन्म के साथ ही सिर्फ 5 प्रतिशत विजन के माध्यम से दे�ाने वाली सृष्टि ग्रेजुएशन के साथ ही सिविल सर्विस की तैयारी करना चाहती हैं। सृष्टि कहती है कि मुझे तो परिवार का पूरा सहयोग मिला लेकिन मेरे जैसे अन्य बच्चों की मैं मदद करना चाहती हूं और उसके लिए सिस्टम का पार्ट बनना चाहती हूं। सृष्टि दृष्टिवाधित आईएएस कृष्ण गोपाल तिवारी को अपना आदर्श मानती हैं। सृष्टि कहती हैं कि श्री तिवारी ने विषम परिस्थितियों में रहकर किस तरह से अपने लक्ष्य को हासिल किया यह मैंने 9वीं क्लास में एक बार पढ़ा था तभी से तय कर लिया था कि मुझे भी आईएएस ऑफिसर बनना है।




  कोई भी परफेक्ट नहीं होता
 फिल्म डोर के गाने ये हौंसला कैसे रूके और
इकबाल फिल्म के गीत आशाएं आशाएं से प्रेरित होने वाली सृष्टि तिवारी अपनी तरह के उन बच्चों से कहती हैं जो निराश हो जाते हैं कि,  दुनिया में कोई भी व्यक्ति परफेक्ट नहीं होता और ईश्वर किसी से कुछ छीनता है तो बदले में उसे कुछ खास भी बनाता है। इसलिए जो नहीं है उसके लिए दु�ाी न हों बल्कि जो आपके पास है उसके द्वारा अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करें।
कुछ �ाी नामुमकिन नहीं
सृष्टि युवाओं को संदेश देते हुए कहती हैं कि मुश्किलें स�ाी के जीवन में हैं, उनसे घबराए बिना अपने लक्ष्य को पाने के लिए मेहनत करें। सफलता अवश्य मिलेगी। वैसे �ाी हेलर किलर ने कहा है   Optimism is the faith that leads to achievement. Nothing can be done without hope and confidence.
अर्थात आशा से ही जीवन में सब कुछ है। आशा और विश्वास पर ही हर सफलता निश्चित होती है। 

प्रस्तुृति सर्जना चतुर्वेदी

Thursday 13 February 2014

my new article in rojgar aur nirman




एक रिश्ता - बड़ा अनाम
सोचता हूँ दूं - उसे
कोई अच्छा सा नाम .

सावन सा उमड़ता -
...


घुमड़ता रीझता हो .
खिजाता हो - खीजता हो .
कोई ऐसी हो इस जहाँ में - ऐ दोस्त
जिसका दिल मेरे दर्द से -
बेतरह पसीजता हो .

जो लड़ सके दुनिया से -
मेरे एक मुस्कराहट के लिए
पलकें बिछा दे मेरी एक
हलकी सी आहट के लिए .

बहूत सोचा - पर मिला नहीं
ऐसा कोई नाम - इस जहाँ में
जिसे दे सकूं - एक पवित्र
रिश्ते - बंधन का नाम .

नजरें बार बार - दुनिया
का चक्कर लगा - चकरा जाती हैं
फिर फिर वापिस लौट के
आ जाती हैं .

उसे ढूँढता रहा मैं बाहर
पर वो तो छिपी - हुई थी
मेरे घर के भीतर ही - यार .

किसी से अब कुछ और - कहूं तो
मेरी बहूत हेठी हो सकती है -
सोचता हूँ - वो सिर्फ और
सिर्फ - कोई और नहीं
मेरी बहन  हो सकती है !
kuch khas not written by me

Monday 10 February 2014

इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है



इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है
अपनी मां, अपने पिता अपने परिवार को छोड़कर देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले वीर शहीदों की जब बात आती है तो 23 मार्च 1931 को देश के लिए अपनी शहादत देने वाले शहीद ए आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान आज भी अविस्मरणीय है। देश के युवाओं के लिए प्रेरणा क्रांतिकारी भगत ने 23 साल की उम्र में फांसी के तख्ते पर चढ़ अपना नाम इतिहास के अमिट पन्नों में शामिल कर लिया। भगत ने 1923 में ही महज 16 बरस की उम्र में घर को अलविदा कहा दिया। सन् 1923 में भगतसिंह, नेशनल कालेज, लाहौर के विद्यार्थी थे। जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब में भी भाग लेते थे। क्रांतिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आजादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं। घर में दादी जी ने अपने पोते की शादी की बात चलाई। उनके सामने अपना तर्क न चलते देख पिता जी के नाम यह पत्र लिख छोड़ा और कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पास पहुंचकर 'प्रतापÓ में काम शुरू कर दिया। वहीं बीके दत्त, शिव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा जैसे क्रांतिकारी साथियों से मुलाकात हुई। उनका कानपुर पहुंचना क्रांतिकारी के रास्ते पर एक बड़ा कदम बना। पिता जी के नाम लिखा गया भगतसिंह का यह पत्र घर छोडऩे सम्बन्धी उनके विचारों को सामने लाता है।
पूज्य पिता जी,
नमस्ते।
मेरी जिन्दगी मकसदे आला1 यानी आजादी -ए-हिन्द के असूल2 के लिए वक्फ3 हो चुकी है। इसलिए मेरी जिन्दगी में आराम और दुनियावी खाहशात4 बायसे कशिश5 नहीं हैं।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन6 के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएँगे।
आपका ताबेदार,
भगतसिंह
इस तरह अपने घर परिवार को छोड़कर भारत मां को अंग्रेजों की गुलामी की बेडिय़ों से आजाद कराने के लिए घर से निकल गए शहीद ए आजम।
हमेशा जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूंढते
हैं।। शेर को गुनगुनाने वाले भगत ने
लाहौर बम धमाके, असेंबली बम कांड के आरोपी क्रांतिकारी भगतसिंह ने असेम्बली बम काण्ड पर यह अपील भगतसिंह द्वारा जनवरी, 1930 में हाई कोर्ट में की गयी थी। इसी अपील में ही उनका यह प्रसिद्द वक्तव्य था  पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। भगत सिंह ने कहा  माई लॉर्ड, हम न वकील हैं, न अंग्रेजी विशेषज्ञ और न हमारे पास डिगरियां हैं। इसलिए हमसे शानदार भाषणों की आशा न की जाए। हमारी प्रार्थना है कि हमारे बयान की भाषा संबंधी त्रुटियों पर ध्यान न देते हुए, उसके वास्तवकि अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाए। दूसरे तमाम मुद्दों को अपने वकीलों पर छोड़ते हुए मैं स्वयं एक मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करूंगा। यह मुद्दा इस मुकदमे में बहुत महत्वपूर्ण है। मुद्दा यह है कि हमारी नीयत क्या थी और हम किस हद तक अपराधी हैं।
विचारणीय यह है कि असेंबली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी व्यक्ति को शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से हमें जो सजा दी गई है, वह कठोरतम ही नहीं, बदला लेने की भावना से भी दी गई है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए, तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाए, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाए, तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी कत्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह सामाजिक व्यवस्था और सभ्यता खून-खराबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जाएगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाए, तो किसी हुकूमत को क्या अधिकार है कि समाज के व्यक्तियों से न्याय करने को कहे? यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाए, तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखाई देगा और हरेक पैगंबर पर अभियोग लगेगा कि उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया। यदि उद्देश्य को भुला दिया जाए, तो हजरत ईसा मसीह गड़बड़ी फैलाने वाले, शांति भंग करने वाले और विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखाई देंगे और कानून के शब्दों में वह खतरनाक व्यक्तित्व माने जाएंगे... अगर ऐसा हो, तो मानना पड़ेगा कि इनसानियत की कुरबानियां, शहीदों के प्रयत्न, सब बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर खड़े हैं, जहां आज से बीस शताब्दियों पहले थे। कानून की दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न खासा महत्व रखता है।
माई लॉर्ड, इस दशा में मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाए कि जो हुकूमत इन कमीनी हरकतों में आश्रय खोजती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता, तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, यदि उसका उद्देश्य चूहों को मारना हो। लेकिन यदि इससे किसी आदमी को मार दिया जाए, तो कत्ल का अपराध बन जाता है। लिहाजा, ऐसे कानूनों को, जो युक्ति (दलील) पर आधारित नहीं और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है, उन्हें समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के कारण बड़े-बड़े श्रेष्ठ बौद्धिक लोगों ने बगावत के कार्य किए हैं।
हमारे मुकदमे के तथ्य बिल्कुल सादा हैं। 8 अप्रैल, 1929 को हमने सेंट्रल असेंबली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को मामूली खरोंचें आईं। चेंबर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गए। कुछ देर बाद खामोशी छा गई। मैं और साथी बीके दत्त खामोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया कि हमें गिरफ्तार कर लिया जाए। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। अभियोग लगाए गए और हत्या करने के प्रयत्न
के अपराध में हमें सजा दी गई। लेकिन बमों से 4-5 आदमियों को मामूली चोटें आईं और एक बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा। जिन्होंने यह अपराध किया, उन्होंने बिना किसी किस्म के हस्तक्षेप के अपने आपको गिरफ्तारी के लिए पेश कर दिया। सेशन जज ने स्वीकार किया कि यदि हम भागना चाहते, तो भागने में सफल हो सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमें सजा का भय नहीं है। लेकिन हम यह नहीं चाहते कि हमें गलत समझा जाए। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ काट दिए गए हैं, यह वास्तविकता की दृष्टि से हानिकारक है।
समग्र रूप में हमारे वक्तव्य के अध्ययन से साफ होता है कि हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। इस दशा में काफी ऊंची आवाज में चेतावनी देने की जरूरत थी और हमने अपने विचारानुसार चेतावनी दी है। संभव है कि हम गलती पर हों, हमारा सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमें अपने विचार प्रकट करने की स्वीकृति न दी जाए और गलत बातें हमारे साथ जोड़ी जाए।
'इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबादÓ के संबंध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी, उसे उड़ा दिया गया है। हालांकि यह हमारे उद्देश्य का खास भाग है। इंकलाब जिंदाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था, जो आमतौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है। मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया समझे बिना किसी के संबंध में निर्णय देना उचित नहीं। गलत बातें हमारे साथ जोड्ना साफ अन्याय है। इसकी चेतावनी देना बहुत आवश्यक था। बेचैनी रोज-रोज बढ़ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग खतरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब हमने इस तूफान का रुख बदलने के लिए यह कार्रवाई की। हम इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। हमारा विश्वास है कि यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्रवाई करतीं, तो फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियां न बरस पड़तीं। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफान को रोकते हुए खून-खराबे के वातावरण में डूब गईं। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम पहले चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इ'छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में विफल हो जाते। माई लॉर्ड, इस नीयत और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्रवाई की और इस कार्रवाई के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमें बमों की ताकत के संबंध में कतई ज्ञान न होता, तो हम पं. मोती लाल नेहरू, श्री केलकर, श्री जयकर और श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रीय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन किस तरह खतरे में डाल सकते थे? हम पागल तो नहीं हैं? और अगर पागल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पागलखाने में बंद किया जाता। बमों के संबंध में हमें निश्चित जानकारी थी। उसी कारण हमने ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम फेंकना कहीं आसान काम था, खाली जगह पर बमों को फेंकना निहायत मुश्किल था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमागों के न होते या वे परेशान होते, तो बम खाली जगह के बजाय बेंचों पर गिरते। तो मैं कहूंगा कि खाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालात में, माई लार्ड, हम सोचते हैं कि हमें ठीक तरह समझा नहीं गया। आपकी सेवा में हम सजाओं में कमी कराने नहीं आए, बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने आए हैं। हम चाहते हैं कि न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाए, न ही हमारे संबंध में अनुचित राय दी जाए। सजा का सवाल हमारे लिए गौण है।

23 मार्च 1931 को सायंकाल 7 बजकर 23 मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु फांसी के फंदे पर झूल गए। श्रीकृष्ण सरल द्वारा लिखी गई कविता उनके ग्रंथ क्रांति
गंगा से साभार यहां दी जा रही है।

आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर सांस
आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?
हां सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
मां के तीन लाल जाएंगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।
फांसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने मां का बंधन खोला।
झन झन झन बज रहीं बेडिय़ांं, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।
पुन: वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की मां बहनें।
उसी रंग में अपने मन को रंग रंग
कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएं चूमें।
हमें वसंती चोला मां तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।
सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।
झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूंजने और तीव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा ।
खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बांहों में कस कर,
भावों के सब बांढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।
मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।
तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूं
 मैं भाई,
छोटों की अभिलाषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फांसी पाऊंगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊंगा।
बढिय़ा फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।
तर्क बहुत बढिय़ा था उसका, बढिय़ा उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।
भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।
यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने ?
मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग
कांप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।
मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएं,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकडिय़ों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।
इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हंसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।
और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत मां के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हंसते हंसते झूल गए थे फांसी के फंदों पर।
हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा
हंस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएं,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएं।
जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएं,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएं।।

Friday 7 February 2014

hard work for success

रोजगार और निर्माण के 3 फरवरी 2014 को राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा में सफलता पर प्रकाशित मेरा नया आलेख

Thursday 30 January 2014

जानती हूं बिटिया तेरा कोई कसूर नहीं

छोटी सी थी गुडिय़ा तो आस पड़ोस में रहने वाले अंकल, भैया या फिर चाचा संबोधन जो भी हो सबकी लाडली थी। सबकी प्यारी नन्ही परी को कभी कोई चॉकलेट दिला देता तो कभी कोई उसे उसकी पसंदीदा गटागट की गोलियां दिला देता और उस नन्हीं सी गुडिय़ा के चेहरे पर ऐसी मुस्कान बिखर जाती कि मानो उसे सारी दुनिया की खुशियां एक पल में ही मिल गई हों। सब भी उसकी तोतली भाषा में ढेर सारी बातों को सुनकर बहुत खुश होते लेकिन अब नहीं। अब वह गुडिय़ा पहले जैसी नहीं रही क्यों क्योंकि अब पांच साल की उस बिटिया को अब मम्मी या दादी एक पल के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देती हैं। उसे खेलना भी है तो अपने ही घर में मगर जब कभी वह जिद करती है और अपनी तोतली जुबान में बोलती है हमें भी थेलने जाना है तो मां उस नन्ही बच्ची पर कभी खीज जाती है तो कभी गुस्से में एक तमाचा जड़ देती है। और वह आंखों में आंसू लिए अपनी खेलने की गुडिय़ा के साथ सो जाती है। मां आती है चुपचाप उसे सोते हुए देखती है और खुद आंखों में आंसू भरकर खुद से कहती है
जानती हूं बिटिया तेरा कोई कसूर नहीं है मगर क्या करूं यह दुनिया अब पहले जैसी नहींं है। सब कुछ बदल गया है अब पांच साल की बच्ची में उसे मासूमियत नहीं दिखती ना किसी वृद्धा में मां का वात्सल्य न किसी लड़की में बहन की तस्वीर अब तो नजर आती है तो सिर्फ अपनी हवस बुझाने का जरिया। आज मां कुछ परेशान है, क्योंकि आज सुबह ही उसने अखबार में पांच साल की बिटिया से रिश्तेदार द्वारा बलात्कार की खबर जो पढ़ी है। अब कैसे सोएगी यह मां पता नहीं....
सब कहते हैं आंसू कमजोर लोगों की निशानी है लेकिन जब कोई साथ ना हो तो किसी का भी साथ हो वह मजबूत ही लगता है।
उस समय आंसू कमजोर कैसे हो सकते हैं।

Friday 24 January 2014

दक्षिण की झांसी की रानी - वीरांगना रानी चेन्नम्मा



खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी... देश की आजादी के लिए लडऩे वाली वीरांगनाओं में झांसी की रानी के बारे में तो हम सब जानते ही हैं लेकिन अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली वीरांगनाओं की सूची में ऐसी कई बालाएं हैं जिनके बारे में देशवासी बहुत कम जानते हैं। ऐसा ही एक नाम है रानी चिन्नम्मा का। 
उत्तर भारत में जो स्थान स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है, कर्नाटक में वही स्थान कित्तूर की रानी चेन्नम्मा का है। चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेजों की सेना को उनके सामने दो बार मुंह की खानी पड़ी थी। रानी चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश के विभिन्न हिस्सों खासकर कर्नाटक में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है और उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले ही रानी चेनम्मा ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। हालांकि उन्हें युद्ध में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया। अंग्रेजों के कैद में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया।
 चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। इस सुंदर बालिका का जन्म 1778 ई. में दक्षिण के काकातीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भांति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई।
चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहां हीरे-जवाहरात के बाजार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी चल बसे। तब उनकी बड़ी रानी रुद्रम्मा का पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज गद्दी पर बैठा और चेन्नम्मा के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम चेन्नम्मा देखेगी। शिवलिंग की भी जल्दी मृत्यु हो गई।
अंग्रेजों की नीति डाक्ट्रिन आफ लैप्स के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति आने पर अंग्रेज उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। कुमार के अनुसार रानी चेनम्मा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में इस नीति की अहम भूमिका थी। 1857 के आंदोलन में भी इस नीति की प्रमुख भूमिका थी और अंग्रेजों की इस नीति सहित विभिन्न नीतियों का विरोध करते हुए कई रजवाड़ों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। डाक्ट्रिन आफ लैप्स के अलावा रानी चेनम्मा का अंग्रेजों की कर नीति को लेकर भी विरोध था और उन्होंने उसे मुखर आवाज दी। रानी चेनम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का विरोध किया।
 अंग्रेजों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। रानी चेन्नम्मा ने सन् 1824 में (सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम से भी 33 वर्ष पूर्व) उन्होने हड़प नीति (डॉक्ट्रिन आफ लेप्स) के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था।
आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेजों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने बस कुछ मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात किले के फाटक खुले और दो हजार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी। थैकरे भाग गया। दो देशद्रोही को रानी चेन्नम्मा ने तलवार के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेजों ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फांसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई। 21 फरवरी 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया।
भले ही रानी चिन्नम्मा अंग्रेजों को परास्त ना कर पायी हो लेकिन मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम और अपनी वीरता के कारण अंग्रेज उनके विश्वास को अडिग नहीं कर पाए। स्त्री के साहस की मिसाल रानी चिन्नम्मा भले ही इतिहास के पन्नों में समा गई हों लेकिन उनका जीवन और साहस उन्हें उन विजित राजाओं से कहीं ऊपर रखता है जो आत्मसम्मान और गुलामी की कीमत पर अपनी साख और राज्य को बचाकर रखते हैं।
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी