SARJANA CHATURVEDI

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Wednesday 16 July 2014

मां के आंचल में समाए कितने ही बेसहारा


          ममत्व की मिसाल - मदर टेरेसा

पीडि़त मानवता की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है, स्वामी विवेकानंद के इस विचार को सुना भले ही करोड़ों लोगों ने होगा लेकिन इसे जीवन में उतारने वाले चंद लोग ही हैं। ऐसा ही एक नाम है मदर टेरेसा, मदर यानी मां जिन्होंने हिंदुस्तान की धरती पर रहने वाले गरीब और असहाय लोगों के लिए अपना आंचल फैलाकर अपनी ममता के आगोश में उन्हें रखा। इसलिए कहा भी जाता है जन्म देने वाले से बड़ा पालन पोषण करने वाला करने वाला होता है। अपनी कोख से भले किसी बच्चे को जन्म न देने वाली इस मां की मानवता की सेवा को देखकर उनकी वंदना लोग करते हैं। ममत्व और प्रेम की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा ने दुनिया भर में अपने शांति-कार्यों की वजह से नाम कमाया. मदर टेरेसा ने जिस आत्मीयता से भारत के दीन-दुखियों की सेवा की है, उसके लिए देश सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहेगा।  मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को मेसिडोनिया की राजधानी स्कोप्जे शहर में हुआ था लेकिन वह खुद अपना जन्मदिन 27 अगस्त मानती थीं। उनके पिता का नाम निकोला बोयाजू और माता का नाम द्राना बोयाजू था। मदर टेरेसा का असली नाम 'अगनेस गोंझा बोयाजिजूÓ था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है।  अगनेस के सिर से पिता का साया महज 7 बरस की आयु में ही उठ गया बाद में उनका लालन-पालन उनकी माता ने किया। पांच भाई-बहनों में वह सबसे छोटी थीं और उनके जन्म के समय उनकी बड़ी बहन आच्च की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी,अपने स्कूली जीवन में ही 'सोडालिटीÓ से उनका सम्पर्क हुआ। वह इस संस्था की सदस्या बन गयीं। यहीं से उनके जीवन को एक नयी दिशा मिली; उनके विचारों को चिन्तन का एक नया आयाम मिला। अन्तत: इस नयी दिशा ने, इस नये चिन्तन ने ममता की मूर्ति माँ टेरेसा का निर्माण किया। घर में सभी प्रकार का सुख था। अभाव या दु:ख जैसी कोई चीज़ न थी, किन्तु अग्नेस को तो मां बनना था, अनेक निराश्रितों, दु:खियों उपेक्षितों की मां, विश्व की मां, विश्वजननी बनना था। उनकी कितनी ही सन्तानें नया जीवन पाकर सुखों का भोग कर रही हैं, कितनी ही सन्तानें उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं, भारत में ही नहीं विदेशों में भी।
जिनके जन्म देनेवालों का कोई पता तक नहीं, ऐसे कितने ही व्यक्ति मां की ममता का सम्बल पाकर नये जीवन में प्रवेश कर चुके हैं कितनी ही अबलाएं अपनी गृहस्थी बसा चुकी हैं।
कितने ही परित्यक्त शिशु माँ की ममता पाकर शैशव का सुख भोग रहे हैं, किलकारियां मार रहे हैं।
कितने ही विकलांग, मूक-बधिर माँ के शिशु-सदनों में सामान्य जीवन जी रहे हैं।  गोंझा को एक नया नाम 'सिस्टर टेरेसाÓ दिया गया जो इस बात का संकेत था कि वह एक नया जीवन शुरू करने जा रही हैं। यह नया जीवन एक नए देश में जोकि उनके परिवार से काफी दूर था, सहज नहीं था लेकिन सिस्टर टेरेसा ने बड़ी शांति का अनुभव किया।सिस्टर टेरेसा तीन अन्य सिस्टरों के साथ आयरलैंड से एक जहाज में बैठकर 6 जनवरी, 1929 को कोलकाता में 'लोरेटो कॉन्वेंटÓ पंहुचीं. वह बहुत ही अच्छी अनुशासित शिक्षिका थीं और विद्यार्थी उन्हें बहुत प्यार करते थे।  वर्ष 1944 में वह सेंट मैरी स्कूल की प्रिंसिपल बन गईं। मदर टेरेसा ने आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गो की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। मदर टेरेसा जब भारत आईं तो उन्होंने यहां बेसहारा और विकलांग बच्चों तथा सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आंखों से देखा और फिर वे भारत से मुंह मोडऩे का साहस नहीं कर सकीं। वे यहीं पर रुक गईं और जनसेवा का व्रत ले लिया, जिसका वे अनवरत पालन करती रहीं। मदर टेरेसा ने भ्रूण हत्या के विरोध में सारे विश्व में अपना रोष दर्शाते हुए अनाथ एवं अवैध संतानों को अपनाकर मातृत्व-सुख प्रदान किया। उन्होंने फुटपाथों पर पड़े हुए रोत-सिसकते रोगी अथवा मरणासन्न असहाय व्यक्तियों को उठाया और अपने सेवा केन्द्रों में उनका उपचार कर स्वस्थ बनाया, या कम से कम उनके अन्तिम समय को शान्तिपूर्ण बना दिया। दुखी मानवता की सेवा ही उनके जीवन का व्रत था। सन् 1949 में मदर टेरेसा ने गरीब, असहाय व अस्वस्थ लोगों की मदद के लिए 'मिशनरीज ऑफ चैरिटीÓ की स्थापना की, जिसे 7 अक्टूबर, 1950 को रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी.  इसी के साथ ही उन्होंने पारंपरिक वस्त्रों को त्यागकर नीली किनारी वाली साड़ी पहनने का फैसला किया। मदर टेरेसा ने 'निर्मल हृदयÓ और 'निर्मला शिशु भवनÓ के नाम से आश्रम खोले, जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीडि़त रोगियों व गरीबों की  अस्वयं सेवा करती थीं। जिन्हें
समाज ने बाहर निकाल दिया हो, ऐसे लोगों पर इस महिला ने अपनी ममता व प्रेम लुटाकर सेवा भावना का परिचय दिया।
साल 1962 में भारत सरकार ने उनकी समाज सेवा और जन कल्याण की भावना की कद्र करते हुए उन्हें पद्म श्री से नवाजा। 1980 में मदर टेरेसा को उनके द्वारा किये गये कार्यों के कारण भारत सरकार ने भारत रत्‍न से अलंकृत किया। विश्व भर में फैले उनके मिशनरी के कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था, उन्होंने नोबेल पुरस्कार की 192,000 डॉलर की धन-राशि को भारतीय गरीबों के लिए एक फंड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया जो उनके विशाल हृदय को दर्शाता है। १९८५ में उन्हें मेडल आफ फ्रीडम दिया गया। पीडि़त मानवता की सेवा के लिए उन्हें संपूर्ण विश्व में अलग -अलग सम्मानों से सम्मानित किया गया। मदर टेरेसा के सम्मान में भारत सरकार द्वारा डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है।


अपने जीवन के अंतिम समय में मदर टेरेसा पर कई तरह के आरोप भी लगे. उन पर गरीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनाने का आरोप लगा। भारत में भी प. बंगाल और कोलकाता जैसे राज्यों में उनकी निंदा हुई. मानवता की रखवाली की आड़ में उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक माना जाता था. लेकिन कहते हैं ना जहां सफलता होती है वहां आलोचना तो होती ही है.्रवर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गईं।. वही उन्हें पहला हार्ट अटैक आ गया। इसके बाद साल 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया। लगातार गिरती सेहत की वजह से 5 सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय तक 'मिशनरीज ऑफ चैरिटीÓ में 4000 सिस्टर और 300 अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में लिप्त थीं। समाज सेवा और गरीबों की देखभाल करने के लिए जो आत्मसमर्पण मदर टेरेसा ने दिखाया उसे देखते हुए पोप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में मदर टेरेसा को धन्य घोषित किया था।

मदर टेरेसा भले ही जन्म से भारतीय न हों मगर वह भारत में जन्में किसी अन्य भारतीय से ज्यादा भारत मां की सच्ची संतान हैं। इस प्रसंग में हमें महाभारत के अप्रतिम महारथी कर्ण का स्मरण हो आता है। बेचारा कर्ण, अविवाहित मां की सन्तान कर्ण, जिसे लोकलाज के भय से मां नदी की गोद में विसर्जित कर देती है। संयोग से वह  शूद्र को मिल जाता है। सन्तानहीन शूद्र ही उसका पालन-पोषण करता है। हीरा तो हीरा ही रहता है, चाहे वह जौहरी के पास रहे अथवा धूल में पड़ा हो। वह स्वयं कह देता है कि वह हीरा है।परिस्थितियां कर्ण का साथ देती हैं, दुर्योधन उसे राजा बना देता है, यह बाद की बात है, किन्तु रूढिय़ों में जकड़ा भारतीय उसकी योग्यता को न देख कर उसके कुल, गोत्र आदि को देखता है। उसे राजकुमारों के साथ किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने के सर्वथा अयोग्य समझा जाता है। तब कर्ण कह उठता है-''मैं शूद्र हूं, शूद्रपुत्र हूं या जो कोई भी हूं, इसमें मेरा क्या दोष ? किसी भी कुल में जन्म लेना दैवाधीन है, जबकि पौरुष का परिचय देना मेरे अपने वश में हैं।ÓÓकर्ण कहता है कि किसी भी खानदान में जन्म लेना मेरे वश में नहीं है। हां, वीरता का परिचय देना मेरे वश में है। नीच कुल में जन्म लेना मेरी अयोग्यता का परिचायक कैसे हो सकता है, क्योंकि यह मेरे वश में नहीं है, जो मेरे वश में है, उसकी बात करो। मां टेरेसा का कथन था, ''मेरा जन्म भारत में नहीं हुआ, किन्तु मैं स्वयं भारतीय बन गयी हूं।Óइन दोनों में किसे महान कहा जाएगा, निश्चय ही जो अपने कर्मों से भारतीय बना हो।
परम्परागत रूप में सम्पन्नता प्राप्त होने पर यदि कोई उन्नति कर भी ले, तो इसमें उसे अधिक श्रेय नहीं दिया जा सकता, किन्तु जो स्वयं अपने बलबूते पर उन्नति करे, वह निश्चय ही महान है।यदि हम धार्मिक दुराग्रहों से मुक्त होकर विचार करें, तो कर्ण सभी पाण्डवों से कहीं अधिक महान प्रतीत होता है। मां टेरेसा तो सभी जन्मजात भारतीयों से महान थीं ही। इसे भी एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि मां टेरेसा कितने ही मातृ-परित्यक्त कर्णों की मां थीं। उनके ममतामय हाथों का; उनके वात्सल्य का सम्बल प्राप्त कर कितने ही कर्णों को एक नया जीवन मिला।



प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी

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