SARJANA CHATURVEDI

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Wednesday 18 December 2013

रणचण्डी का रूप थी वीरांगना लक्ष्मीबाई
अंतिम सांस तक नहीं दी अपनी मिट्टी


सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
... स्वाधीनता के दौर में कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी यह
लाइनें आज भी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा को जीवंत कर
देने के लिए काफी हैं। आज जब हमने आसपास महिलाओं के साथ होने वाले
अत्याचारों को देखते हैं तो कई बार यह यकीन करना भी मुश्किल होता है कि
यह वही मिट्टी है जहां रानी लक्ष्मीबाई ने अपने अदम्य साहस और
आत्मविश्वास के दम पर ही 100 साल से गुलाम बनाकर रखने वाले अंग्रेजों के
खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका। पति की मृत्यु के बाद आमतौर पर स्त्री के
टूटने की ही तरह लक्ष्मीबाई को भी टूटा हुआ मानकर ही अंग्रेजों ने सोचा
था कि झांसी पर आसानी से कब्जा किया जा सकता है लेकिन उनकी वह भूल किस
तरह से उनके लिए ही घातक हो गई यह उस वीरांगना ने अपने शौर्य से साबित कर
दिया। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है,
जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहां की ललनाएं
भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम
है- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की
महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से
भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता
संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन्
1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम
स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है। अंग्रेजों
के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में
वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में
उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से
उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। अंग्रेजों की शक्ति का
सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़
मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।
19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में
लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का
नाम भागीरथी बाई था। इनका बचपन का नाम मणिकर्णिका रखा गया परन्तु प्यार
से मणिकर्णिका को मनु पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पांच वर्ष
ही थी कि उसकी मां का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण
ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई
सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी मां की मृत्यु हो जाने पर वह पिता
के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और
शस्त्रविद्याएं सीखीं। चूंकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था
इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते
थे जहां चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को
प्यार से छबीली बुलाते  थे। पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए
शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढऩे लगी। सात साल की उम्र
में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने
में,धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामथ्र्य दिखाया।
बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएं  सुनीं।
वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। सुभद्रा
कुमारी ने लिखा भी है कि बरछी, ढाल कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी...
इसलिए लड़कियों की तरह गुड्डे-गुडिय़ों का खेल और सजना संवरना उन्हें रास
नहीं आता था। मनु तो अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो
गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे। समय
बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झांसी के राजा
गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद
इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु झांसी की रानी
लक्ष्मीबाई बन गई। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था।
स्वछन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने उस दौर में किले
के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु
आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने अपने राज्य की स्त्रियों को उस दौर में
सशक्त बनाने के लिए स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव
अपनी पत्नि की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।
रानी विधवा हुई हाय विधि को भी दया नहीं आई सुभद्रा कुमारी चौहान की यह
लाइनें आज भी बुंदेलखंड के गांव के लोगों की आंखों में आंसू ले आती हैं।
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। संपूर्ण झांसी
आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था।
कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार महीने की आयु में
ही उसकी मृत्यु हो गयी। झांसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा
गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगडऩे पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद
लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने
गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा
गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर
1853 में मृत्यु हो गयी। रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी
महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर
लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में
घोषणा करवा दी कि एक निश्चित दिन गरीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया
जाए। उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का शासन था। डलहौजी की
हड़प नीति के तहत वह सतारा, नागपुर जैसे राज्यों की तरह झांसी को भी अपने
अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी
लक्ष्मीबाई विधवा अबला स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने
रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और
रानी को पत्र लिख भेजा कि चूंकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झांसी
पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं
घोषणा की कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। अंग्रेज तिलमिला उठे। परिणाम
स्वरूप अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी
तैयारी की। किले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने
एवं चांदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। रानी के किले की
प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं
नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खां
तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने किले की मजबूत किलाबन्दी की। रानी के कौशल को
देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजों ने किले को
घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके।
रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक किले की
रक्षा करेंगे। अंग्रेज सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से
किला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झांसी के
ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी
द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का
पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी
तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बांधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर
लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झांसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट
पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूंज  उठी। किन्तु
झांसी की सेना अंग्रेजों
की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेजों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों
की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर
में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज सैनिक उनके समीप आ गए। रानी
को असहनीय वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था।
उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए
बन्द हो गए। वह 17 जून, 1858 का दिन था, जब क्रांति की यह ज्योति अमर हो
गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने
मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे
सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही
सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी
मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई लेकिन वह अमर हो गई।
 प्रस्तुति
सर्जना चतुर्वेदी

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