SARJANA CHATURVEDI

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Saturday 21 December 2013


शेरनी का पु़त्र हंसते हुए बढ़ा फांसी के त ते पर
शहीद दिवस ाुदीराम बोस 11 अगस्त

आजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान के अनगिनत कारनामों से भरा पड़ा है। क्रांतिकारियों की सूची में ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस का,कुछ इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढऩे वाला सबसे कम उम्र का देशभक्त मानते हैं। खुदीराम का जन्म तीन दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के घर हुआ था। खुदीराम बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो
गया था। खुदीराम बोस की बड़ी बहन
अनुरूपादेवी और बहनोई अमृतलाल को, खुदीराम के पालनपोषण का उत्तर- दायित्व नि ााया। आनंदमठ उपन्यास पढ़ते ही उसे अपने जीवन - कार्य की दृष्टि मिली। मातृभूमि की सेवा में उन्होंने अपने जीवन - समर्पण का निश्चय किया। सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। बोस को ग़ुलामी की बेडिय़ों से जकड़ी भारत माता को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और सिर पर कफन बांधकर जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े। वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम पंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फरवरी 1906,
बंगाल के मेदिनीपुर शहर में एक विशाल प्रदर्शनी आयोजित की गयी थी। अंग्रेज
राज्यकर्ताओं के अन्याय पर पर्दा डालना यही इस प्रदर्शनी का उद्देश्य था। उस प्रदर्शनी में
ऐसी वस्तुएं, चित्र तथा कठपुतलियां रखी हुई थी, जिनसे आभास हो कि अंग्रेज राज्यकर्ता जो विदेश से आये थे, भारत को बहुत सहायता दे रहे हैं। इस प्रदर्शनी को देखने बहुत भीड़
इक्ट्ठा हुई थी। उस समय एक सोलह वर्षीय युवक लोगों को परचा बांटते हुए दिखाई दिया। उस पर्चे का शीर्षक था सोनार बांगला। उसमें
वन्देमातरम का नारा था, साथ ही साथ उस प्रदर्शनी के आयोजक, अंग्रेजों के वास्तविक हेतु को भी स्पष्ट किया गया था। अंग्रेजों द्वारा किये गए अन्याय तथा क्रूरता का भी उस पर्चे में उल्ले ा था। प्रदर्शनी देखने वाले लोगों में
कुछ लोग इंग्लैंड के राजा के प्रति निष्ठा रखते थे। अंग्रेजो के अन्याय का विरोध करने वाले उस युवक का उन्होंने विरोध किया।
वन्देमातरम  स्वतंत्रता,स्वराज्य, इस प्रकार के शब्द उन्हें सुई की तरह चुभते थे। उन्होंने उस लड़के को पर्चे बांटने से रोका। उन्होंने उस लड़के को डराया धमकाया, पर उनकी उपेक्षा कर उस लड़के ने शांति से पर्चे बांटना जारी रखा। जब कुछ लोग उसे पकडऩे लगे तो वह चालाकी से भाग गया। अंत में एक पुलिस सिपाही ने उस लड़के का हाथ पकड़ा। उसके हाथ से परचे छीन लिए। परन्तु उस लड़के को पकडऩा आसन नहीं था। उसने झटका देकर अपना हाथ छुड़ाया और हाथ घुमा कर सिपाही की नाक पर जमकर घूँसा मारा। उसने परचे फिर उठा लिए और कहा,ध्यान रखो, मुझे स्पर्श मत करो ! मैं देखूंगा कि मुझे वारंट के बगैर पुलिस कैसे पकड़ सकती है। जिस पुलिस सिपाही को घूँसा मारा गया था, वह पुन आगे बढ़ा, किन्तु लड़का वहाँ नहीं था। वह जनसमूह में अदृश्य हो चुका था। जब लोग
वन्देमातरम के नारे लगाने लगे तो पुलिस और राजनिष्ठ लोगों को आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अपने लिए अपमानजनक प्रतीत हुआ। बाद में उस लड़के के विरुद्ध एक मुकदमा
चलाया गया लेकिन छोटी उम्र के आधार पर न्यायलय ने उसे मुक्त कर दिया।
जिस वीर लड़के ने मेदिनीपुर की प्रदर्शनी में बहादुरी से परचे बांटकर अंग्रेजों की बुरी योजनाओं को विफल कर दिया, वह खुदीराम बोस था। 16 मई, 1906 को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें गिर तार कर लिया, मगर
उनकी छोटी आयु को देखते हुए चेतावनी
देकर उन्हें छोड़ दिया गया था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक चरण में कई क्रांतिकारी ऐसे थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के
विरुद्ध आवाज उठाई। खुदीराम बोस भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के इतिहास में संभवतया सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, जो भारत मां के सपूत कहे जा सकते हैं। 1905 में
बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी उन्होंने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। उनकी
क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिर तार कर लिया गया,
लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। छह दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया। सन 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज
अधिकारियों वाट्सन और पै फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन वे भी बच
निकले। खुदीराम बोस मुज फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे जिसने
बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी।
उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता।
क्रांतिकारियों ने उसे मार डालने की ठान ली थी। युगान्तर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेन्द्र
कुमार घोष ने घोषणा की कि किग्सफोर्ड को मुज फरपुर में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी को
चुना गया। ये दोनों क्रांतिकारी बहुत सूझबूझ वाले थे। इनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। देश भक्तों को तंग करने वालों को मार डालने का काम उन्हें सौंपा गया था। एक दिन वे दोनों मुज फरपुर पहुंच गए। वही एक धर्मशाला में वे आठ दिन रहे। इस दौरान
उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या तथा
गतिविधियों पर पूरी नजर रखी। उनके बंगले के पास ही क्लब था। अंग्रेजी अधिकारी और उनके परिवार अक्सर सायंकाल वहां जाते थे। 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्स फोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे। रात्रि के साढ़े आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया। देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए। उसमें सवार मां बेटी दोनों
की मौत हो गई। क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है। खुदीराम बोस और घोष 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। इस समय तक मुज फरपुर की
घटना चारों दिशाओं में फैल चुकी थी। जहां खुदीराम बैठे थे, लोगों की चर्चा इसी विषय पर हो रही थी। उत्सुकता से उसने चर्चा सुनी। केवल दो महिलाओं की मृत्यु हुई, यह सुनकर वह अपने आप को भूल गया और उसने पूछा ,क्या किंग्जफोर्ड नहीं मरे? खुदीराम के इन शब्दों से दुकान में बैठे लोगों की दृष्टि उस पर गई। वह लड़का वहां नया दि ा रहा था। उसके चेहरे पर बहुत थकान बहुत दिख रही थी। दुकान का मालिक उसके प्रति सशंक हो उठा। उसने विचार किया कि अपराधी को पकडऩे में सहायता करने पर उसे पुरस्कार मिलेगा। उसने खुदीराम को पानी दिया और सामने जा रहे पुलिस सिपाही को खबर दी। पानी पीने के लिये ग्लास उठाते समय ही पुलिस सिपाही ने उसे पकड़ लिया। खुदीराम अपनी जेब से पिस्तौल नहीं निकाल सका। दोनों पिस्तौलें पुलिस सिपाहियों ने छीन ली, किन्तु खुदीराम नहीं घबराया। प्रफुल्ल भी खुदीराम की तरह भागा था। उसने दो दिन तक पुलिस सिपाहियों को चकमा दिया। किन्तु तीसरे दिन भटकते समय वह पकड़ा गया। पुलिस सिपाहियों को चकमा देकर वह फिर भाग गया। किन्तु चारों ओर पुलिस का जाल फैला था। कुछ भी हो, मैं जीवित होते हुए उन्हें मेरे शरीर को स्पर्श नहीं करने दूंगा - कहते हुए अपनी पिस्तौल
निकाल कर उसने स्वयं पर चला दी और वीरगति प्राप्त की। पुलिस उसका सर काटकर मुज फऱपुर ले गई । खुदीराम को पुलिस की निगरानी में रेल गाड़ी से मुज फऱपुर लाया
गया। जिस भारतीय लड़के ने अंग्रेजों पर पहला बम फेंका था, उसे देखने हजारों लोग इकट्टा हुए। पुलिस स्टेशन जाने के लिये पुलिस की गाड़ी में बैठते समय खुदीराम हंसकर
चिल्लाए वन्देमातरम! गर्व से आँसुओं की धारा लोगों की आँखों से झरने लगी। खुदीराम के विरुद्ध एक अभियोग चलाया गया। सरकार के पक्ष में दो वकील थे। मुज फरपुर शहर में खुदीराम के पक्ष में कोई भी न था। अंत में
कालिदास बोस नामक वकील खुदीराम की सहायता हेतु आये। यह मुकदमा दो मास तक चला। अंत में खुदीराम को मृत्यु दंड मिला। मृत्यु दंड का निर्णय सुनते समय भी खुदीराम के चेहरे पर मुस्कान थी।
न्यायाधीश को आश्चर्य हुआ कि मृत्युदंड होते हुए भी यह 19 वर्षीय लड़का शांत कैसे हो सकता है। जज ने ाी कहा था कि शेरनी का वह पुत्र हंसते हुए फांसी के त ते पर चढ़ा
था। क्या तुम इस निर्णय का अर्थ जानते हो न्यायाधीश ने पूछा । खुदीराम हंसकर बोले इसका अर्थ मैं आपसे अधिक अच्छी तरह जानता हूं।
तु हे कुछ कहना है? बम किस प्रकार से बनता है, यह मैं स्पष्ट करना चाहता हूं
न्यायाधीश को डर था कि कोर्ट मैं बैठे सारे लोगों को बम तैयार करने की जानकारी यह खुदीराम देगा। इसलिए उसने खुदीराम को बोलने की अनुमति नहीं दी। खुदीराम को अंग्रेजों के न्यायालय से न्याय की आशा थी ही नहीं। किन्तु कालिदास बोस की खुदीराम को बचाने की इच्छा थी। उन्होंने खुदीराम की ओर से कलकत्ता हाइकोर्ट में याचिका दाखिल की। कलकता हाइकोर्ट के न्यायाधीश भी खुदीराम के स्वभाव को जानते थे। निर्भय आंखों वाले दृढ निश्चयी खुदीराम को देख कर उन्हें भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने भी खुदीराम को मृत्युदंड ही दिया जो कनिष्ठ कोर्ट ने दिया था। किन्तु उन्होंने खुदीराम के फांसी का दिन 6 अगस्त से 19 अगस्त 1908 तक बढ़ा दिया। तु हें कुछ कहने की इच्छा है? पुन: पूछा गया। खुदीराम ने कहा,राजपूत वीरों की तरह मेरे देश की स्वाधीनता के लिये मैं मरना चाहता हूं। फांसी के विचार से मुझे जरा भी दु:ख नहीं हुआ है। मेरा एक ही दु:ख है कि किंग्ज फोर्ड को उसके अपराध का दंड नहीं मिला।
कारागृह में भी उन्हें चिंता नहीं थी। जब मृत्यु उनके पास पहुंची, तो भी उनके मुख पर चमकथी। उन्होंने सोचा कि जितनी जल्दी मैं मेरा जीवन मातृभूमि के लिये समर्पित करूँगा, उतनी ही जल्दी मेरा पुन: जन्म होगा। यह कोई पौराणिक कथा नहीं है। मृत्युदंड के निर्णय के अनुसार 11 अगस्त 1908 को सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी के त ते के पास लाया
गया। उस समय भी उनके चेहरे की मुस्कान
कायम थी। शांति से वह उस स्थान पर गया। उसके हाथ में भगवतगीता थी। अंत में एक ही बार उन्होंने वन्देमातरम कहा और उसे फांसी लगी। अंत में खुदीराम ने अपना ध्येय प्राप्त
किया। उन्होंने अपना जीवन मातृभूमि के
चरणों पर समर्पित कर दिया। भारत के इतिहास में वह अमर है। देश के लिए जान देने की प्रसन्नता के कारण फांसी के दिन 11 अगस्त, 1908 को खुदीराम बोस का वजन दो पौण्ड़ बढ़ गया था। प्रात: 06 बजे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया था। गंड़क नदी के तट पर खुदीराम बोस के वकील कालीदास मुखर्जी ने उनकीचिता में आग लगाई। हजारों की सं या में युवकों का समूह एकत्रित था। चिता की आग से निकली चिंगारियां स पूर्ण भारत में
फैली। चिता की भस्मी को लोगों ने अपने माथे पर लगाया, पुडिय़ा बांध कर घर ले गये। खुदीराम बोस ही प्रथम क्रांतिवीर हैं जिन्होंने बीसवीं सदी में आजादी के लिए फांसी के त ते पर अपने प्राणों की आहुति दी थी। मुज फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें
फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी केत ते की ओर बढ़ा था। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए
गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। उनके स मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं। इतिहासकार शिरोल के अनुसार- बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह शहीद और अधिक अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। स्कूल-कॉलेज बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। खुदीराम बोस को भारत की स्वतंत्रता के लिए संगठित
क्रांतिकारी आंदोलन का प्रथम शहीद माना जाता है। अपनी निर्भीकता और मृत्यु तक को सोत्साह वरण करने के लिए वे घर-घर में श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं। यह एक ऐसे वीर की जीवन गाथा है, जिसने भारत को रौदने वाले अंग्रेजों पर पहला बम फेंका था।
ाुदीराम बोस ने कहा था भारत माता ही मेरे लिए माता-पिता और सब कुछ है। उसके लिये मेरा जीवन समर्पित करना मेरे लिए गौरव का विषय होगा। मेरी एकमात्र इच्छा यही है -अपने देश को स्वाधीनता मिलते तक मैं पुन:
पुन: यही जन्म लूं और पुन: पुन: जीवन को बलिवेदी पर चढ़ाऊं।

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