SARJANA CHATURVEDI

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Wednesday 18 December 2013

सिर्फ डायर को मारना ही था ऊधम सिंह की जिंदगी का मकसद

आज का युवा अपनी ही उलझनों में व्यस्त है लेकिन जरा इतिहास के पन्नों को पलटकर देखते हैं तो पता चलता है कि भारत मां के कितने ही बेटों ने अपनी शहादत देकर अपने खून से अपनी मां के चरणों की वंदना की। तब जाकर इस मुल्क को यह आजादी मिली। मातृभूमि के लिए जवानी में ही अपनी शहादत देने वाले ऐसे वीर सपूतों में से कुछ याद रह गए तो कुछ लोगों के लिए अनजाने से हो गए। देश के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वाले ऐसे ही एक वीर थे उधम सिंह जी। हां जलियावाला बाग हत्याकांड तो सबको याद है लेकिन उस खूनी डायर को सजा देकर खुद मौत को गले लगाने वाले थे उधम सिंह। सन 1919 को एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी भारत मे आया था जिसका नाम था डायर ! अमृतसर में उसकी पोस्टिंग की गई थी और उसने एक रोलेट एक्ट नाम का कानून बनाया जिसमें नागरिकों के मूल अधिकार खत्म होने वाले थे और नागरिकों की जो थोड़ी बहुत बची हुई आजादी थी वो भी अंग्रेजों के पास जाने वाली थी।  इस रोलेट एक्ट का विरोध करने के लिए 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियावाला बाग में एक बड़ी सभा आयोजित की गई थी, जिसमें 25000 लोग शामिल हुए थे, उस बड़ी सभा मे डायर ने अंधाधुंध गोलियां चलवायी थी। 15 मिनट के अंदर 1650 राउंड गोलियां चलवाई थी डायर ने। 3000 क्रांतिकारी वहीं तड़प तड़प के मर गए थे। जलियावाला बाग जहां अंदर जाने और बाहर आने के लिए एक ही दरवाजा है वो भी चार दीवारी से घिरा हुआ है और दरवाजा भी मुश्किल से 4 से 5 फुट चौड़ा है। उस दरवाजे के बाहर डायर ने तोप लगवा दी थी ताकि कोई निकल के बाहर न जा पाये और अंदर उसके दो कुएं है जिसको अंधा कुंआ के नाम से जाना जाता है। 1650 राउंड गोलियां जब चलायी गई। जो लोग गोलियों के शिकार हुये वो तो वही शहीद हो गए और जो बच गए उन्होंने जान बचाने के लिए कुए में छलांग लगा दी और कुंआ लाशों से पट गया और 15 मिनट तक गोलियां चलाते हुए डायर वहां से हंसते हुए चला गया और जाते हुये अमृतसर की सड़कों पर जो उसे लोग मिले उन्हें गोलियां मार कर तोप के पीछे बांध कर घसीटता गया। मनुष्य के रूप में इस पशुता को अंजाम देने वाले डायर
को इसके लिए अंग्रेजी संसद से ईनाम मिला था उसका प्रमोशन कर दिया गया था और उसको भारत से लंदन भेज दिया गया था वह भी प्रमोशन के साथ। इस घटना के माध्यम से भले अंग्रेज आजादी के परवानों को सबक सिखाना चाहते थे लेकिन इसने आजादी के परवानों को और अधिक जोश दिया और अंग्रेजों से बदला लेने के लिए प्रेरित किया।
डायर को क्या पता था कि इस घटना में ही उसका काल बनकर इस घटना को देखने वाला एक अबोध बालक ही उसका भविष्य में काल बनेगा। 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के सुनाम गांव में जन्मे अमर शहीद उधम सिंह उस वक्त 11 साल के थे और ये ह्त्याकांड उन्होंने अपनी आंखो से देखा था और उन्होंने संकल्प लिया था संकल्प ये था जिस तरह डायर ने मेरे देशवासियो को इतनी क्रूरता से मारा हैं इस डायर को मैं जिंदा नहीं छोड़ूंगा। यही मेरी जिंदगी का आखिरी संकल्प हैं। आर्थिक रूप से अक्षम परिवार में जन्मे उधम सिंह के सिर से माता पिता का साया उठ चुका था उधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दुखी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा जारी रखने के साथ ही आजादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। ऊधम सिंह सर्व धर्म सम भाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को जिम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएं की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली।
भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतजार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियावाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कॉक्सटन हॉल में बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां चला दीं। दो गोलियां डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। उन पर मुकदमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहां कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए। 4 जून 1940 को ऊधमसिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधमसिंह की अस्थियां सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गांव में उनकी समाधि बनी हुई है। बिस्मिल के शब्दों में

हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में शिर नवाऊँ ।
मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ ।।

माथे पे तू हो चंदन, छाती पे तू हो माला ;
जिह्वा पे गीत तू हो मेरा, तेरा ही नाम गाऊं ।।

जिससे सपूत उपजें, श्री राम-कृष्ण जैसे;
उस धूल को मैं तेरी निज शीश पे चढ़ाऊँ ।।

माई समुद्र जिसकी पद रज को नित्य धोकर;
करता प्रणाम तुझको, मैं वे चरण दबाऊँ ।।

सेवा में तेरी माता ! मैं भेदभाव तजकर;
वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ सुनाऊँ ।।

तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही मंत्र गाऊँ।
मन और देह तुझ पर बलिदान मैं जाऊँ ।।

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