SARJANA CHATURVEDI

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Saturday 28 December 2013

सूचना क्रांति के अस्त्र का सटीक प्रयोग

सूचना क्रांति के अस्त्र का सटीक प्रयोग

प्रदेश को दी पहले ऑनलाइन जनसंपर्क कार्यालय की सौगात

हमारे आसपास मौजूद संसाधन तो हैं लेकिन जब तक हम उनका उपयोग नहीं करेंगे तो उनके कोई मायने नहीं है और उपयोग करने के लिए जरूरी है कि हमें उसके संबंध में जानकारी हो और हम जागरूक हों। जानकारी और जागरूकता के संयोग से ही मनुष्य संविधान में मिले अपने अधिकारों का उपयोग कर सकता है और उसकी ही वजह से व्यक्ति सरकार द्वारा दी गई सुविधाओं का लाभ उठा सकता है। सूचना और तकनीक के इस युग में एक क्लिक पर सबकुछ मौजूद है लेकिन उस एक क्लिक को हमारे लिए कहां करना बेहतर होगा यह भी मायने रखता है। सूचना की इस बेहतर तकनीक का प्रयोग जन संवाद के हित में किया जनसंपर्क बुरहानपुर से अपनी जिला जनसंपर्क अधिकारी की नौकरी की शुरूआत करने वाले 25 वर्षीय सुनील वर्मा ने। वर्तमान में खंडवा जिला जनसंपर्क कार्यालय का दायित्व संभाल रहे सुनील वर्मा ने जनसंपर्क बुरहानपुर के कार्यालय को प्रदेश का पहला ऑनलाइन जनसंपर्क कार्यालय बनाकर इस बात का प्रमाण प्रस्तुत किया कि जरूरी नहीं कि बेहतर संसाधन और सुविधाएं हो तभी कोई व्यक्ति या संस्थान बेहतर ढंग से कार्यों को अंजाम दे सकता है। काम करने का जज्बा हो तो सीमित संसाधनों के साथ भी बेहतर ढंग से कार्यों को पूरा किया जा सकता है। जहां संसाधनों के नाम पर जब कुछ नहीं था उस समय ऑनलाइन जनसंपर्क कार्यालय को स्थापित करने का काम 2 वर्ष पहले ही पूरा कर लिया।
ऑनलाइन खबरों से बनाया बेहतर संवाद
कहते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। ऐसे में जब सुनील वर्मा ने जनसंपर्क बुरहानपुर का दायित्व संभाला था, तब  वहां पर जनसंपर्क का ना ही कोई कार्यालय था और ना ही स्टाफ। ऐसी परिस्थिति में परंपरागत ढंग से प्रेस रिलीज एक-एक समाचार पत्र के कार्यालय में पहुंचाना संभव नहीं था, इसलिए संसाधनों के अभाव को देखते हुए और आज के हाइटेक मीडिया की जरूरतों को समझते हुए अपने कार्यालय को पूरी तरह ऑनलाइन बनाने का निर्णय लिया। इसलिए भले ही आज तक जनसंपर्क बुरहानपुर द्वारा एक भी प्रेस नोट की कॉपी जिले के किसी समाचार पत्र के दफ्तर में हार्ड कॉपी के रूप में ना पहुंचती हो लेकिन ई मेल पर खबरें जरूर सुनिश्चतता के साथ पहुंचने का क्रम जारी है। वैसे भी कलम से की बोर्ड और कागज से मॉनीटर तक का सफर कर रहे पत्रकारों को ईमेल से सॉफ्ट कॉपी के रूप में खबर मिलने से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के प्रहरियों का टाइप करने का वक्त भी बच जाता है और जिला प्रशासन और शासन की योजनाओं से जुड़े यह समाचार समाचार पत्रों में सहजता के साथ अपनी जगह भी बना लेते हैं।
पर्यावरण संरक्षण में भी योगदान
परंपरागत प्रेस रिलीज सिस्टम को खत्म कर इससे न सिर्फ पेपर की बचत कर पर्यावरण संरक्षण की मुहिम में अपना योगदान भी दे रहा है और इसके साथ ही कर्मचारी के हाथों प्रेस नोट भेजने पर होने वाले समय और पैसे के खर्च को भी बचा रहा है। इसके साथ ही सूचना तकनीक के उपयोग की दिशा में सभी पत्रकार बंधुओं को वे टू एसएमएस अलर्ट सुविधा के माध्यम से खबरें भेजने के पहले मोबाइल पर एसएमएस भेजने का काम भी किया जाता है।
नवाचार की ओर बढ़ते कदम
बुरहानुपर जनसंपर्क कार्यालय प्रदेश का पहला अॅानलाइन जिला जनसंपर्क कार्यालय बनने का दर्जा हासिल कर चुका हैै। अपने इस ब्लॉग के माध्यम से केवल जिले ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश और देश में बुरहानपुर से जुड़ी खबरें जानने के इच्छुक लोगों की मदद हो रही है। खास बात यह है कि इस ब्लॉग का निर्माण 8 दिसंबर दिसंबर 2011 को सुनील वर्मा द्वारा किया गया था लेकिन ब्लॉग के निर्माण के लिए जो जोश था, वह जोश दो साल बाद भी कम नहीं हुआ है। आज भी दो वर्ष बाद भी जिले से जुड़ी सभी खबरें इस ब्लॉग पर उसी निरंतरता के साथ पढ़ी जा सकती हैं। साथ ही शासन की योजनाओं की समस्त जानकारी से लेकर उनसे जुड़े फार्म भी यहां मौजूद हैं। इससे शासन से जुड़ी योजनाओं का हितग्राही सीधे लाभ ले सकते हैं। 
फेसबुक पर दस्तक
किसी भी चीज का उपयोग आपको कैसे करना यह उस वस्तु पर नहीं बल्कि स्वयं आप पर निर्भर करता है। विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट का प्रयोग कुछ लोगों ने यदि अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए किया तो कुछ ने इसके माध्यम से देश से निरंकुशता को हटाकर लोकतंत्र की स्थापना में उपयोग किया। पुराने दोस्तों से जुडऩे सूचनाओं को एक-दूसरे तक पहुंचाने और विचारों को मंच देने वाले इस सोशल प्लेटफार्म के महत्व को देखते हुए बुरहानपुर जनसंपर्क कार्यालय भी इस सोशल नेटवर्किंग साइट से जुड़ा। ताकि इस सोशल प्लेटफार्म से जुड़े लोगों को प्रदेश सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं और नीतियों से अवगत कराया जा सके, साथ ही जिला प्रशासन के महत्वपर्ण जनहितैषी निर्णय और कार्यों की जानकारी इस न्यू मीडिया तकनीक के माध्यम से भी लोगों तक पहुंच सके। बुरहानपुर के तत्कालीन जनसंपर्क
अधिकारी सुनील वर्मा ने बुरहानपुर जनसंपर्क का फेसबुक पर अकांउट
5 अगस्त से फेसबुक पर बनाया।
लोगों तक जनसंपर्क कार्यालय की सूचनाओं को पहुंचाने के लिए इस सोशल नेटवर्किंग साइट पर 22 अगस्त 2012 को फेसबुक पर जनसंपर्क विभाग बुरहानपुर के अलग पेज का निमार्ण किया गया।   https://www.facebook.com/jansampark.burhanpur के यू.आर.एल नाम से बनाये गये इस पेज पर यूनीकोड फोंट में बुरहानपुर जिला प्रशासन द्वारा जनहित में लिए जाने वाले निर्णयों, जनहितेषी कार्यो और प्रदेश सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं की जानकारी दी जाती है। बुरहानपुर जनसपंर्क की फेसबुक पर लोकप्रियता को देखते हुए जनसंपर्क बड़वानी, जनसंपर्क खंडवा, जनसंपर्क देवास समेत कई जिलों के जनसंपर्क कार्यालयों ने भी इसका अनुकरण कर अपने कार्यालय को भी फेसबुकिया बनाकर जानकारी देना शुरू कर दिया है।
जनसरोकार और जनजागरूकता की पहल है - बुरहानपुर निर्माण
सूचना देने के साथ ही लोगों को जागरूक करने में समाचार पत्रों के योगदान के बारे में कुछ कहना दीये को रोशनी दिखाने के समान सा लगता है। प्रताप के समय गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर शहीद ए आजम भगतसिंह ने भी आजादी के आंदोलन में अखबार के माध्यम से देश की आजादी के लिए क्रांतिकारियों को संदेश पहुंचाने का काम किया तो अपनी सशक्त कलम से अंग्रेजों की दुखती रग पर हाथ रखने का काम आजादी के आंदोलन में दादा माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कलमकारों ने किया। समाचार पत्र न सिर्फ लोगों को अवगत कराता है। समाचार पत्र के इतिहास से लेकर अब तक जारी महत्व को समझते हुए नवाचार और रचनात्मक कार्य के लिए प्रतिबद्ध जनसंपर्क बुरहानपुर ने बुरहानपुर निर्माण ई पेपर का आगाज भी बुरहानपुर कलेक्टर आशुतोष अवस्थी के मार्गदर्शन में किया।
खबरों का संसार ऑन
सूचना तकनीक के उपयोग का यह कारवां यहां भी रूका नहीं जी हां वेबसाइट निर्माण का नवाचार करते हुए बुरहानपुर से सरोकार अब एक क्लिक पर ला दिया इस लिंक के माध्यम से   https://sites.google.com/site/0dproburhanpur/home
इतिहास में अपनी खास पहचान रखने वाला दक्षिण का द्वार बुरहानपुर सूचना तकनीक के क्षेत्र में भी अब अपनी छवि गढ़ रहा है। इस वेबसाइट के माध्यम से जिले से जुड़ी सभी जानकारी अब कहीं भी बैठे-बैठे  पर एक क्लिक करके ली जा सकती हैं।  बुरहानपुर जनसंपर्क की इस नव सृजित वेबसाइट में एक क्लिक पर ही देश के सभी भाषाओं के सभी समाचार चौनलों के खबरें देखी जा सकती हैं। इसके साथ ही हमारे देश में प्रकाशित समस्त भाषाओं के समाचार पत्रों को भी इस वेबसाइट पर मौजूद लिंक के माध्यम से ऑनलाइन पढ़ा जा सकता है।
चुनावी समर में भी खास रही सूचना तकनीक
लोकतंत्र के महापर्व में सूचना तकनीक का कैसे बखूबी प्रयोग किया जाए। वह भी बुरहानपुर जनसंपर्क कार्यालय के कामकाज में देखा गया, यहां निर्वाचन से जुड़ी समस्त जानकारी एक अलग ब्लॉग और फेसबुक अकाउंट के माध्यम से दी गई, जिससे मीडिया से जुड़े लोगों से लेकर चुनाव में रूचि रखने वाले मतदाताओं को जानकारी आसानी से प्राप्त हुई।
नई तकनीक से जुड़ता खंडवा जनसंपर्क
हाल ही में खंडवा जिला जनसंपर्क कार्यालय का पदभार संभालने के बाद युवा जनसंपर्क अधिकारी सुनील वर्मा अपने नवाचारों की जिस कड़ी को सूर्य पुत्री ताप्ती नगरी से शुरू किया था। उसे वह अपनी सोच और ऊर्जा के साथ आगे भी जारी रखना चाहते हैं। यहां भी कार्यालय संभालने के बाद खंडवा जनसंपर्क का ब्लॉग बनाने, खंडवा जनसंपर्क कार्यालय का निर्वाचन संबंधी फेसबुक अकाउंट बनाकर सूचनाओं के समुद्र से खबर रूपी मोतियों को चुनकर संपादित करने का काम यहां भी जारी है।
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी

Saturday 21 December 2013


शेरनी का पु़त्र हंसते हुए बढ़ा फांसी के त ते पर
शहीद दिवस ाुदीराम बोस 11 अगस्त

आजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान के अनगिनत कारनामों से भरा पड़ा है। क्रांतिकारियों की सूची में ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस का,कुछ इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढऩे वाला सबसे कम उम्र का देशभक्त मानते हैं। खुदीराम का जन्म तीन दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के घर हुआ था। खुदीराम बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो
गया था। खुदीराम बोस की बड़ी बहन
अनुरूपादेवी और बहनोई अमृतलाल को, खुदीराम के पालनपोषण का उत्तर- दायित्व नि ााया। आनंदमठ उपन्यास पढ़ते ही उसे अपने जीवन - कार्य की दृष्टि मिली। मातृभूमि की सेवा में उन्होंने अपने जीवन - समर्पण का निश्चय किया। सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। बोस को ग़ुलामी की बेडिय़ों से जकड़ी भारत माता को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और सिर पर कफन बांधकर जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े। वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम पंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फरवरी 1906,
बंगाल के मेदिनीपुर शहर में एक विशाल प्रदर्शनी आयोजित की गयी थी। अंग्रेज
राज्यकर्ताओं के अन्याय पर पर्दा डालना यही इस प्रदर्शनी का उद्देश्य था। उस प्रदर्शनी में
ऐसी वस्तुएं, चित्र तथा कठपुतलियां रखी हुई थी, जिनसे आभास हो कि अंग्रेज राज्यकर्ता जो विदेश से आये थे, भारत को बहुत सहायता दे रहे हैं। इस प्रदर्शनी को देखने बहुत भीड़
इक्ट्ठा हुई थी। उस समय एक सोलह वर्षीय युवक लोगों को परचा बांटते हुए दिखाई दिया। उस पर्चे का शीर्षक था सोनार बांगला। उसमें
वन्देमातरम का नारा था, साथ ही साथ उस प्रदर्शनी के आयोजक, अंग्रेजों के वास्तविक हेतु को भी स्पष्ट किया गया था। अंग्रेजों द्वारा किये गए अन्याय तथा क्रूरता का भी उस पर्चे में उल्ले ा था। प्रदर्शनी देखने वाले लोगों में
कुछ लोग इंग्लैंड के राजा के प्रति निष्ठा रखते थे। अंग्रेजो के अन्याय का विरोध करने वाले उस युवक का उन्होंने विरोध किया।
वन्देमातरम  स्वतंत्रता,स्वराज्य, इस प्रकार के शब्द उन्हें सुई की तरह चुभते थे। उन्होंने उस लड़के को पर्चे बांटने से रोका। उन्होंने उस लड़के को डराया धमकाया, पर उनकी उपेक्षा कर उस लड़के ने शांति से पर्चे बांटना जारी रखा। जब कुछ लोग उसे पकडऩे लगे तो वह चालाकी से भाग गया। अंत में एक पुलिस सिपाही ने उस लड़के का हाथ पकड़ा। उसके हाथ से परचे छीन लिए। परन्तु उस लड़के को पकडऩा आसन नहीं था। उसने झटका देकर अपना हाथ छुड़ाया और हाथ घुमा कर सिपाही की नाक पर जमकर घूँसा मारा। उसने परचे फिर उठा लिए और कहा,ध्यान रखो, मुझे स्पर्श मत करो ! मैं देखूंगा कि मुझे वारंट के बगैर पुलिस कैसे पकड़ सकती है। जिस पुलिस सिपाही को घूँसा मारा गया था, वह पुन आगे बढ़ा, किन्तु लड़का वहाँ नहीं था। वह जनसमूह में अदृश्य हो चुका था। जब लोग
वन्देमातरम के नारे लगाने लगे तो पुलिस और राजनिष्ठ लोगों को आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अपने लिए अपमानजनक प्रतीत हुआ। बाद में उस लड़के के विरुद्ध एक मुकदमा
चलाया गया लेकिन छोटी उम्र के आधार पर न्यायलय ने उसे मुक्त कर दिया।
जिस वीर लड़के ने मेदिनीपुर की प्रदर्शनी में बहादुरी से परचे बांटकर अंग्रेजों की बुरी योजनाओं को विफल कर दिया, वह खुदीराम बोस था। 16 मई, 1906 को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें गिर तार कर लिया, मगर
उनकी छोटी आयु को देखते हुए चेतावनी
देकर उन्हें छोड़ दिया गया था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक चरण में कई क्रांतिकारी ऐसे थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के
विरुद्ध आवाज उठाई। खुदीराम बोस भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के इतिहास में संभवतया सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, जो भारत मां के सपूत कहे जा सकते हैं। 1905 में
बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी उन्होंने बढ़ चढ़ कर भाग लिया। उनकी
क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिर तार कर लिया गया,
लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। छह दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया। सन 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज
अधिकारियों वाट्सन और पै फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन वे भी बच
निकले। खुदीराम बोस मुज फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे जिसने
बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी।
उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता।
क्रांतिकारियों ने उसे मार डालने की ठान ली थी। युगान्तर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेन्द्र
कुमार घोष ने घोषणा की कि किग्सफोर्ड को मुज फरपुर में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी को
चुना गया। ये दोनों क्रांतिकारी बहुत सूझबूझ वाले थे। इनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। देश भक्तों को तंग करने वालों को मार डालने का काम उन्हें सौंपा गया था। एक दिन वे दोनों मुज फरपुर पहुंच गए। वही एक धर्मशाला में वे आठ दिन रहे। इस दौरान
उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या तथा
गतिविधियों पर पूरी नजर रखी। उनके बंगले के पास ही क्लब था। अंग्रेजी अधिकारी और उनके परिवार अक्सर सायंकाल वहां जाते थे। 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्स फोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे। रात्रि के साढ़े आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया। देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए। उसमें सवार मां बेटी दोनों
की मौत हो गई। क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है। खुदीराम बोस और घोष 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। इस समय तक मुज फरपुर की
घटना चारों दिशाओं में फैल चुकी थी। जहां खुदीराम बैठे थे, लोगों की चर्चा इसी विषय पर हो रही थी। उत्सुकता से उसने चर्चा सुनी। केवल दो महिलाओं की मृत्यु हुई, यह सुनकर वह अपने आप को भूल गया और उसने पूछा ,क्या किंग्जफोर्ड नहीं मरे? खुदीराम के इन शब्दों से दुकान में बैठे लोगों की दृष्टि उस पर गई। वह लड़का वहां नया दि ा रहा था। उसके चेहरे पर बहुत थकान बहुत दिख रही थी। दुकान का मालिक उसके प्रति सशंक हो उठा। उसने विचार किया कि अपराधी को पकडऩे में सहायता करने पर उसे पुरस्कार मिलेगा। उसने खुदीराम को पानी दिया और सामने जा रहे पुलिस सिपाही को खबर दी। पानी पीने के लिये ग्लास उठाते समय ही पुलिस सिपाही ने उसे पकड़ लिया। खुदीराम अपनी जेब से पिस्तौल नहीं निकाल सका। दोनों पिस्तौलें पुलिस सिपाहियों ने छीन ली, किन्तु खुदीराम नहीं घबराया। प्रफुल्ल भी खुदीराम की तरह भागा था। उसने दो दिन तक पुलिस सिपाहियों को चकमा दिया। किन्तु तीसरे दिन भटकते समय वह पकड़ा गया। पुलिस सिपाहियों को चकमा देकर वह फिर भाग गया। किन्तु चारों ओर पुलिस का जाल फैला था। कुछ भी हो, मैं जीवित होते हुए उन्हें मेरे शरीर को स्पर्श नहीं करने दूंगा - कहते हुए अपनी पिस्तौल
निकाल कर उसने स्वयं पर चला दी और वीरगति प्राप्त की। पुलिस उसका सर काटकर मुज फऱपुर ले गई । खुदीराम को पुलिस की निगरानी में रेल गाड़ी से मुज फऱपुर लाया
गया। जिस भारतीय लड़के ने अंग्रेजों पर पहला बम फेंका था, उसे देखने हजारों लोग इकट्टा हुए। पुलिस स्टेशन जाने के लिये पुलिस की गाड़ी में बैठते समय खुदीराम हंसकर
चिल्लाए वन्देमातरम! गर्व से आँसुओं की धारा लोगों की आँखों से झरने लगी। खुदीराम के विरुद्ध एक अभियोग चलाया गया। सरकार के पक्ष में दो वकील थे। मुज फरपुर शहर में खुदीराम के पक्ष में कोई भी न था। अंत में
कालिदास बोस नामक वकील खुदीराम की सहायता हेतु आये। यह मुकदमा दो मास तक चला। अंत में खुदीराम को मृत्यु दंड मिला। मृत्यु दंड का निर्णय सुनते समय भी खुदीराम के चेहरे पर मुस्कान थी।
न्यायाधीश को आश्चर्य हुआ कि मृत्युदंड होते हुए भी यह 19 वर्षीय लड़का शांत कैसे हो सकता है। जज ने ाी कहा था कि शेरनी का वह पुत्र हंसते हुए फांसी के त ते पर चढ़ा
था। क्या तुम इस निर्णय का अर्थ जानते हो न्यायाधीश ने पूछा । खुदीराम हंसकर बोले इसका अर्थ मैं आपसे अधिक अच्छी तरह जानता हूं।
तु हे कुछ कहना है? बम किस प्रकार से बनता है, यह मैं स्पष्ट करना चाहता हूं
न्यायाधीश को डर था कि कोर्ट मैं बैठे सारे लोगों को बम तैयार करने की जानकारी यह खुदीराम देगा। इसलिए उसने खुदीराम को बोलने की अनुमति नहीं दी। खुदीराम को अंग्रेजों के न्यायालय से न्याय की आशा थी ही नहीं। किन्तु कालिदास बोस की खुदीराम को बचाने की इच्छा थी। उन्होंने खुदीराम की ओर से कलकत्ता हाइकोर्ट में याचिका दाखिल की। कलकता हाइकोर्ट के न्यायाधीश भी खुदीराम के स्वभाव को जानते थे। निर्भय आंखों वाले दृढ निश्चयी खुदीराम को देख कर उन्हें भी आश्चर्य हुआ। उन्होंने भी खुदीराम को मृत्युदंड ही दिया जो कनिष्ठ कोर्ट ने दिया था। किन्तु उन्होंने खुदीराम के फांसी का दिन 6 अगस्त से 19 अगस्त 1908 तक बढ़ा दिया। तु हें कुछ कहने की इच्छा है? पुन: पूछा गया। खुदीराम ने कहा,राजपूत वीरों की तरह मेरे देश की स्वाधीनता के लिये मैं मरना चाहता हूं। फांसी के विचार से मुझे जरा भी दु:ख नहीं हुआ है। मेरा एक ही दु:ख है कि किंग्ज फोर्ड को उसके अपराध का दंड नहीं मिला।
कारागृह में भी उन्हें चिंता नहीं थी। जब मृत्यु उनके पास पहुंची, तो भी उनके मुख पर चमकथी। उन्होंने सोचा कि जितनी जल्दी मैं मेरा जीवन मातृभूमि के लिये समर्पित करूँगा, उतनी ही जल्दी मेरा पुन: जन्म होगा। यह कोई पौराणिक कथा नहीं है। मृत्युदंड के निर्णय के अनुसार 11 अगस्त 1908 को सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी के त ते के पास लाया
गया। उस समय भी उनके चेहरे की मुस्कान
कायम थी। शांति से वह उस स्थान पर गया। उसके हाथ में भगवतगीता थी। अंत में एक ही बार उन्होंने वन्देमातरम कहा और उसे फांसी लगी। अंत में खुदीराम ने अपना ध्येय प्राप्त
किया। उन्होंने अपना जीवन मातृभूमि के
चरणों पर समर्पित कर दिया। भारत के इतिहास में वह अमर है। देश के लिए जान देने की प्रसन्नता के कारण फांसी के दिन 11 अगस्त, 1908 को खुदीराम बोस का वजन दो पौण्ड़ बढ़ गया था। प्रात: 06 बजे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया था। गंड़क नदी के तट पर खुदीराम बोस के वकील कालीदास मुखर्जी ने उनकीचिता में आग लगाई। हजारों की सं या में युवकों का समूह एकत्रित था। चिता की आग से निकली चिंगारियां स पूर्ण भारत में
फैली। चिता की भस्मी को लोगों ने अपने माथे पर लगाया, पुडिय़ा बांध कर घर ले गये। खुदीराम बोस ही प्रथम क्रांतिवीर हैं जिन्होंने बीसवीं सदी में आजादी के लिए फांसी के त ते पर अपने प्राणों की आहुति दी थी। मुज फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें
फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी केत ते की ओर बढ़ा था। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए
गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। उनके स मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं। इतिहासकार शिरोल के अनुसार- बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह शहीद और अधिक अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। स्कूल-कॉलेज बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। खुदीराम बोस को भारत की स्वतंत्रता के लिए संगठित
क्रांतिकारी आंदोलन का प्रथम शहीद माना जाता है। अपनी निर्भीकता और मृत्यु तक को सोत्साह वरण करने के लिए वे घर-घर में श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं। यह एक ऐसे वीर की जीवन गाथा है, जिसने भारत को रौदने वाले अंग्रेजों पर पहला बम फेंका था।
ाुदीराम बोस ने कहा था भारत माता ही मेरे लिए माता-पिता और सब कुछ है। उसके लिये मेरा जीवन समर्पित करना मेरे लिए गौरव का विषय होगा। मेरी एकमात्र इच्छा यही है -अपने देश को स्वाधीनता मिलते तक मैं पुन:
पुन: यही जन्म लूं और पुन: पुन: जीवन को बलिवेदी पर चढ़ाऊं।

Wednesday 18 December 2013

रणचण्डी का रूप थी वीरांगना लक्ष्मीबाई
अंतिम सांस तक नहीं दी अपनी मिट्टी


सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
... स्वाधीनता के दौर में कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी यह
लाइनें आज भी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा को जीवंत कर
देने के लिए काफी हैं। आज जब हमने आसपास महिलाओं के साथ होने वाले
अत्याचारों को देखते हैं तो कई बार यह यकीन करना भी मुश्किल होता है कि
यह वही मिट्टी है जहां रानी लक्ष्मीबाई ने अपने अदम्य साहस और
आत्मविश्वास के दम पर ही 100 साल से गुलाम बनाकर रखने वाले अंग्रेजों के
खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका। पति की मृत्यु के बाद आमतौर पर स्त्री के
टूटने की ही तरह लक्ष्मीबाई को भी टूटा हुआ मानकर ही अंग्रेजों ने सोचा
था कि झांसी पर आसानी से कब्जा किया जा सकता है लेकिन उनकी वह भूल किस
तरह से उनके लिए ही घातक हो गई यह उस वीरांगना ने अपने शौर्य से साबित कर
दिया। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है,
जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहां की ललनाएं
भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम
है- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की
महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से
भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता
संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन्
1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम
स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है। अंग्रेजों
के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में
वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में
उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से
उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। अंग्रेजों की शक्ति का
सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़
मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।
19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में
लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का
नाम भागीरथी बाई था। इनका बचपन का नाम मणिकर्णिका रखा गया परन्तु प्यार
से मणिकर्णिका को मनु पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पांच वर्ष
ही थी कि उसकी मां का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण
ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई
सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी मां की मृत्यु हो जाने पर वह पिता
के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और
शस्त्रविद्याएं सीखीं। चूंकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था
इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते
थे जहां चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को
प्यार से छबीली बुलाते  थे। पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए
शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढऩे लगी। सात साल की उम्र
में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने
में,धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामथ्र्य दिखाया।
बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएं  सुनीं।
वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। सुभद्रा
कुमारी ने लिखा भी है कि बरछी, ढाल कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी...
इसलिए लड़कियों की तरह गुड्डे-गुडिय़ों का खेल और सजना संवरना उन्हें रास
नहीं आता था। मनु तो अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो
गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे। समय
बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झांसी के राजा
गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद
इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु झांसी की रानी
लक्ष्मीबाई बन गई। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था।
स्वछन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने उस दौर में किले
के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु
आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने अपने राज्य की स्त्रियों को उस दौर में
सशक्त बनाने के लिए स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव
अपनी पत्नि की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।
रानी विधवा हुई हाय विधि को भी दया नहीं आई सुभद्रा कुमारी चौहान की यह
लाइनें आज भी बुंदेलखंड के गांव के लोगों की आंखों में आंसू ले आती हैं।
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। संपूर्ण झांसी
आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था।
कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार महीने की आयु में
ही उसकी मृत्यु हो गयी। झांसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा
गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगडऩे पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद
लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने
गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा
गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर
1853 में मृत्यु हो गयी। रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी
महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर
लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में
घोषणा करवा दी कि एक निश्चित दिन गरीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया
जाए। उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का शासन था। डलहौजी की
हड़प नीति के तहत वह सतारा, नागपुर जैसे राज्यों की तरह झांसी को भी अपने
अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी
लक्ष्मीबाई विधवा अबला स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने
रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और
रानी को पत्र लिख भेजा कि चूंकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झांसी
पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं
घोषणा की कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। अंग्रेज तिलमिला उठे। परिणाम
स्वरूप अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी
तैयारी की। किले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने
एवं चांदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। रानी के किले की
प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं
नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खां
तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने किले की मजबूत किलाबन्दी की। रानी के कौशल को
देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजों ने किले को
घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके।
रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक किले की
रक्षा करेंगे। अंग्रेज सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से
किला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झांसी के
ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी
द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का
पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी
तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बांधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर
लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झांसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट
पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूंज  उठी। किन्तु
झांसी की सेना अंग्रेजों
की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेजों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों
की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर
में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज सैनिक उनके समीप आ गए। रानी
को असहनीय वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था।
उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए
बन्द हो गए। वह 17 जून, 1858 का दिन था, जब क्रांति की यह ज्योति अमर हो
गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने
मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे
सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही
सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी
मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई लेकिन वह अमर हो गई।
 प्रस्तुति
सर्जना चतुर्वेदी
सिर्फ डायर को मारना ही था ऊधम सिंह की जिंदगी का मकसद

आज का युवा अपनी ही उलझनों में व्यस्त है लेकिन जरा इतिहास के पन्नों को पलटकर देखते हैं तो पता चलता है कि भारत मां के कितने ही बेटों ने अपनी शहादत देकर अपने खून से अपनी मां के चरणों की वंदना की। तब जाकर इस मुल्क को यह आजादी मिली। मातृभूमि के लिए जवानी में ही अपनी शहादत देने वाले ऐसे वीर सपूतों में से कुछ याद रह गए तो कुछ लोगों के लिए अनजाने से हो गए। देश के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वाले ऐसे ही एक वीर थे उधम सिंह जी। हां जलियावाला बाग हत्याकांड तो सबको याद है लेकिन उस खूनी डायर को सजा देकर खुद मौत को गले लगाने वाले थे उधम सिंह। सन 1919 को एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी भारत मे आया था जिसका नाम था डायर ! अमृतसर में उसकी पोस्टिंग की गई थी और उसने एक रोलेट एक्ट नाम का कानून बनाया जिसमें नागरिकों के मूल अधिकार खत्म होने वाले थे और नागरिकों की जो थोड़ी बहुत बची हुई आजादी थी वो भी अंग्रेजों के पास जाने वाली थी।  इस रोलेट एक्ट का विरोध करने के लिए 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियावाला बाग में एक बड़ी सभा आयोजित की गई थी, जिसमें 25000 लोग शामिल हुए थे, उस बड़ी सभा मे डायर ने अंधाधुंध गोलियां चलवायी थी। 15 मिनट के अंदर 1650 राउंड गोलियां चलवाई थी डायर ने। 3000 क्रांतिकारी वहीं तड़प तड़प के मर गए थे। जलियावाला बाग जहां अंदर जाने और बाहर आने के लिए एक ही दरवाजा है वो भी चार दीवारी से घिरा हुआ है और दरवाजा भी मुश्किल से 4 से 5 फुट चौड़ा है। उस दरवाजे के बाहर डायर ने तोप लगवा दी थी ताकि कोई निकल के बाहर न जा पाये और अंदर उसके दो कुएं है जिसको अंधा कुंआ के नाम से जाना जाता है। 1650 राउंड गोलियां जब चलायी गई। जो लोग गोलियों के शिकार हुये वो तो वही शहीद हो गए और जो बच गए उन्होंने जान बचाने के लिए कुए में छलांग लगा दी और कुंआ लाशों से पट गया और 15 मिनट तक गोलियां चलाते हुए डायर वहां से हंसते हुए चला गया और जाते हुये अमृतसर की सड़कों पर जो उसे लोग मिले उन्हें गोलियां मार कर तोप के पीछे बांध कर घसीटता गया। मनुष्य के रूप में इस पशुता को अंजाम देने वाले डायर
को इसके लिए अंग्रेजी संसद से ईनाम मिला था उसका प्रमोशन कर दिया गया था और उसको भारत से लंदन भेज दिया गया था वह भी प्रमोशन के साथ। इस घटना के माध्यम से भले अंग्रेज आजादी के परवानों को सबक सिखाना चाहते थे लेकिन इसने आजादी के परवानों को और अधिक जोश दिया और अंग्रेजों से बदला लेने के लिए प्रेरित किया।
डायर को क्या पता था कि इस घटना में ही उसका काल बनकर इस घटना को देखने वाला एक अबोध बालक ही उसका भविष्य में काल बनेगा। 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के सुनाम गांव में जन्मे अमर शहीद उधम सिंह उस वक्त 11 साल के थे और ये ह्त्याकांड उन्होंने अपनी आंखो से देखा था और उन्होंने संकल्प लिया था संकल्प ये था जिस तरह डायर ने मेरे देशवासियो को इतनी क्रूरता से मारा हैं इस डायर को मैं जिंदा नहीं छोड़ूंगा। यही मेरी जिंदगी का आखिरी संकल्प हैं। आर्थिक रूप से अक्षम परिवार में जन्मे उधम सिंह के सिर से माता पिता का साया उठ चुका था उधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दुखी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा जारी रखने के साथ ही आजादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। ऊधम सिंह सर्व धर्म सम भाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को जिम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएं की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली।
भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतजार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियावाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कॉक्सटन हॉल में बैठक थी जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां चला दीं। दो गोलियां डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। उन पर मुकदमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहां कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए। 4 जून 1940 को ऊधमसिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधमसिंह की अस्थियां सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गांव में उनकी समाधि बनी हुई है। बिस्मिल के शब्दों में

हे मातृभूमि ! तेरे चरणों में शिर नवाऊँ ।
मैं भक्ति भेंट अपनी, तेरी शरण में लाऊँ ।।

माथे पे तू हो चंदन, छाती पे तू हो माला ;
जिह्वा पे गीत तू हो मेरा, तेरा ही नाम गाऊं ।।

जिससे सपूत उपजें, श्री राम-कृष्ण जैसे;
उस धूल को मैं तेरी निज शीश पे चढ़ाऊँ ।।

माई समुद्र जिसकी पद रज को नित्य धोकर;
करता प्रणाम तुझको, मैं वे चरण दबाऊँ ।।

सेवा में तेरी माता ! मैं भेदभाव तजकर;
वह पुण्य नाम तेरा, प्रतिदिन सुनूँ सुनाऊँ ।।

तेरे ही काम आऊँ, तेरा ही मंत्र गाऊँ।
मन और देह तुझ पर बलिदान मैं जाऊँ ।।

Tuesday 17 December 2013

मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा वेदांत होगी तो शरीर इस्लाम होगा।
- स्वामी विवेकानंद
जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान..
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान...
पांच सौ साल पहले संत कबीर दास जी ने दोहे के माध्यम से समाज को जो बात कही थी। वह आज भी लगता है समझने की जरूरत है। हम जिस शहर में रहते हैं वहां दूर से देखने पर शायद हमें जात-पात और ऊंच नीच का भेद नजर नहीं आता है लेकिन गांव में रहने वाले निम्न जाति के लोगों का घर भी सबसे दूर होने की बात भी जमीनी हकीकत है। गांव में रहने वाले सवर्ण लोगों की बात करें तो इन उच्च वर्ण के लोगों के दिल इतने छोटे होते हैं कि निम्न वर्ण के मजदूर के कप को वह अलग कोने में रख देते हैं और घर में रहने वाले छोटे बच्चों को कह दिया जाता है कि उन्हें छूना मत। वह नीच वर्ण के लोगों के हैं। वेद कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के ज्ञान को पूजो उसकी जाति को नहीं महर्षि दयानंद सरस्वती कहते हैं कि पीडि़त मानवता की सेवा करना ही सबसे बड़ा धर्म है। भारत का संविधान हर व्यक्ति को समान अधिकार प्रदान करने की बात करता है लेकिन यह सब तब एक तरफ हो जाती हैं जब देश के किसी भी हिस्से में दलित शिक्षित युवा एक उच्च वर्ण की बेटी से प्यार करके ब्याह रचा लेता है और उसकी इस गलती की सजा कभी उसके पूरे दलित समुदाय का घर जला दिया जाता है तो कभी उसके परिवार को मौत के घाट उतार दिया जाता है।
कैसा है यह सभ्य समाज समझ में नहीं आता। व्यक्ति के गुणों की पूजा क्यों नहीं की जाती यह समझ से परे है। सवर्ण परिवार में पले बच्चों को शायद इस बात का इल्म होगा कि कई बार घर के बुजुर्ग बचपन में कह देते हैं कि बेटा उस से दूर रहना वो दूसरी जाति का है और बड़ों की बात मानकर वह नादान बच्चा भी इस बात मान लेगा कि मना किया है तो दूर रहना। मगर बाद में बड़े होकर यह सवाल अक्सर मन में कौंध जाता है कि क्या किसी दलित वर्ग का व्यक्ति भी तो हमारी ही तरह ही इंसान होता है। उसे भी भगवान ने दो कान, दो आंख, एक नाक, दो हाथ और दो पैर देकर बनाया है। ईश्वर एक है उसने हमें एक सा बनाकर भेजा है तो हम यह भेद कैसे कर लेते हैं। सवाल शायद सबके मन में उठते हैं लेकिन इन सवालों का जवाब खोजने के लिए जो तैयार होते हैं। वही कट्टरपंथी ब्राहमण परिवार में जन्म लेने के बावजूद मूल शंकर से महर्षि दयानंद सरस्वती में तब्दील हो जाते हैं या फिर अपने क्रांतिकारी विचारों से युगों युगों तक पूजने वाले स्वामी विवेकानंद बन जाते हैं। विवेकानंद की जयंती 150 साल से मना रहे लोगों को जरा उनके विचारों को भी एक बार पढऩा चाहिए स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि हिन्दुओं का जीवन दर्शन वेदांत के अद्वैत इस एक शब्द में समाया है, तो उसका सारभूत अर्थ गीता के समं सर्वेषु भूतेषु इस शब्द में। जीवमात्र में एकत्व और ईश्वरत्व ही वेदांत की नींव है तब घृणा या द्वेष किसका? यहां सत्ता और नेतागिरी का कैंसर सामाजिक ही नहीं राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का निवाला लेने की मांग कर रहा है। एक ही धर्म में जांत-पांत में बैर की आग भड़क रही है। इन सबसे अपनी विचार शक्ति के अवरुद्ध हुए बगैर हमें अपने आपसे एक सवाल करना चाहिए कि क्या हम जिंदगी सुकून से जी रहे हैं? फिर ठीक कौन से धर्म की खातिर हम एक-दूसरे का खून बहाने वाले विचारों को समर्थन देकर पाल रहे हैं? धार्मिक दंगों या दहशतवाद के पीछे के अज्ञान के अंधकार से हम अब भी बाहर नहीं निकलेंगे? एक सुबह ऐसी भी होगी सर्व धर्मान पारित्यज्य का निडर उद्घोष करने वाले राम-कृष्ण की जमीं के सामान्य लोग किसी भी द्वेषपूर्ण सीख को स्वीकारने से पूरी तरह इंकार कर देंगे और तब स्वामी विवेकानंद का सपना भी उनका अपना सपना होगा। मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा वेदांत होगी तो शरीर इस्लाम होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा।
देश में धर्म और जाति के नाम पर लड़ाने का काम तो राजनेता हमेशा कराते रहेंगे क्योंकि यदि वह सही राष्ट्र भक्त होंगे तो लोगों को मजहब में क्यों बांटेंगे। वह तो दंगों के बाद जले घरों और अनाथ हुए बच्चों और विधवाओं में भी सिर्फ अपने वोटर ही तलाश करते हैं। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी कोई है जिसे जागने की जरूरत है तो वह स्वयं हम हैं क्योंकि हमें अपना अच्छा बुरा खुद समझना


होगा और इस बात को जानना होगा कि सबसे बड़ा कोई मजहब है तो वह इंसानियत का है और हजारों वर्षों से चले आ रहे इस ऊंच-नीच के भेद को खत्म करना होगा।
साहिर लुधियानबी साहब के शब्दों में -
ऐ रहबर--मुल्क--कौम बता
ये किसका लहू है, कौन मरा

ये कटते हुए तन किसके हैं
नफरत के अंधे तूफां में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं
बदबख्त फिजाएं किसकी हैं
बर्बाद नशेमन किसके हैं
कुछ हम भी सुनें, हमको भी सुना

किस काम के हैं ये दीन धरम
जो शर्म का दामन चाक करे
किस तरह का है ये देश बता
जो बसते घरों को खाक करे
ये रूहें कैसी रूहें हैं
जो धरती को नापाक करे
आंखें तो उठा, नजऱें तो मिला

जिस राम के नाम पे खून बहे
उस राम की इज्ज़त क्या होगी
जिस दीन के हाथों लाज लुटे
उस दीन की कीमत क्या होगी
इंसान की इस जिल्लत से परे
शैतान की जिल्लत क्या होगी
ये वेद हटा, कुरान उठा

वैसे भी जब-जब लोगों ने चली आ रही परंपराओं को तोडऩे की बात कही है उन्हें इस दुनिया ने उनके चले जाने के बाद ही समझा है लेकिन यदि देश की प्रगति चाहिए तो हमें एक होना होगा सिर्फ दिमाग से नहीं दिल से भी।
मुझे किसी धर्म से कोई शिकायत नहीं बस इतनी ख्वाहिश है दिल में की...
हर एक खुश रहे, हर घर आबाद रहे...
हर एक को मिले, उसका हक...
न हो धरती और आसमां का भेद
बस हर दिल में एक-दूजे के लिए प्यार और सम्मान रहे...