शक्ति का अवतार थीं शांति - सुनीति
कहते हैं कि स्त्री यदि वात्सल्य की देवी है तो वह रणचण्डी का रूप भी धारण कर लेती है। वह ममता की मूरत है तो वह शक्ति स्वरूपा भी है। स्त्री यदि सृजक है तो वह दुष्ट नासिनी भी है। नारी जाति की महानता को लेकर हर दौर में अलग-अलग बातें कही गई हैं। देश के लिए मर मिटने और त्याग देने में भी देश की महिलाओं ने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है। बस अंतर यह है कि कुछ का योगदान नजर आ गया तो कुछ इतिहास के पन्नों में अपना योगदान देकर भारत मां के चरणों में खुद को समर्पित करके वहीं शांत हो गईं। ऐसी ही गाथा है शांति घोष और सुनीति चौधरी जैसी भारत मां की दो सपूतनियों की जिनके बारे में भले आज हिंदुस्तानियों को शायद पता भी ना हो मगर उनका योगदान भुलाने लायक नहीं है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे छोटी उम्र की क्रांतिकारी तरुणियों के बारे में जानते हैं। भगत सिंह की फांसी का बदला लेने के लिए भारत की आजादी के क्रांतिकारी इतिहास की सबसे तरुण बालाएं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने 14 दिसम्बर 1931 को त्रिपुरा के कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन को गोली मार दी। इन युवा लड़कियों के साहसिकता पूर्ण कार्य से संपूर्ण देश अचंभित और रोमांचित था।
स्वामी विवेकानंद ने एक बार भारतीय युवकों का आह्वान किया, मत भूलो कि तुम्हारा जन्म मातृभूमि की वेदी पर स्वयं को बलिदान करने के लिए हुआ है। एक दिन किसको पता था कि स्वामी जी की नजदीकी बहन की पोती शांति घोष स्वामी जी के इस सन्देश के लिए अपना किशोर जीवन देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर देगी। शांति घोष 22 नवम्बर 1916 को कलकत्ता में पैदा हुई। उनके पिता देवेन्द्र नाथ घोष मूल रूप से बारीसाल जिले के थे, कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफेसर थे। उनकी देशभक्ति की भावना ने शांति को कम उम्र से ही प्रभावित किया।
शांति की ऑटोबायोग्राफी पर प्रसिद्ध क्रांतिकारी बिमल प्रतिभा देवी ने लिखा बंकिम की आनंद मठ की शांति जैसी बनना। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा, नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ, हे माताओ..इन सबके के आशीर्वाद ने युवा शांति को प्रेरित किया और उसने स्वयं को उस मिशन के लिए तैयार किया। जब वह फज़ुनिस्सा गल्र्स स्कूल की छात्रा थी तो अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से युगांतर पार्टी में शामिल हुई और क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लिया और जल्द ही वह दिन आया उन्होंने अपना युवा जीवन मुस्कुराते हुए बहादुरी से मातृभूमि को समर्पित कर दिया।
14 दिसम्बर 1931 को अपनी सहपाठी सुनीति चौधरी के साथ कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन को गोली मार दी। इन युवा लड़कियों के साहसिकता पूर्ण कार्य से संपूर्ण देश अचंभित और रोमांचित था। लाखों देशवासियों की प्रशंसा और स्नेह को साथ लेकर शांति अपनी साथी सुनीति के साथ आजीवन कारावास के लिए चली गयी। जेल में शांति और सुनीति को कुछ समय अलग रखा गया। यह एकांत कारावास चौदह साल की लड़कियों के लिए दुखी कर देने वाला था। 1937 में उन्हें कई राजनैतिक कैदियों के साथ शीघ्र रिहाई मिली। उन्होंने फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की। 1942 में उन्होंने चटगांव के एक भूतपूर्व क्रांतिकारी कार्यकर्ता चितरंजन दास से शादी की... शांति एक लम्बे समय (1953 -1968 ) तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद् और विधानसभा की सदस्या रहीं। उनकी आत्मकथा पुस्तक अरुनबानी ने बहुत प्रशंसा प्राप्त की थी। 28 मार्च 1989 को श्रीमती शांति घोष (दास) ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
उन्हीं की दूजी साथी सुनीति चौधरी स्वतंत्रता संग्राम में एक असाधारण भूमिका निभाने वाली का जन्म मई 22, 1917 पूर्वी बंगाल के त्रिपुरा जिले के इब्राहिमपुर गांव में एक साधारण हिंदू मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी उमाचरण सरकारी सेवा में थे और मां सुरससुन्दरी चौधरी, एक शांत और पवित्र विचारों वाली औरत थी जिन्होंने सुनीति के तूफानी कैरियर पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा। जब वह कच्ची उम्र में स्कूल में थी तो उसके दो बड़े भाई कॉलेज में क्रांतिकारी आन्दोलन में थे। सुनीति युगांतर पार्टी में अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी द्वारा भर्ती की गई थी। कोमिल्ला में सुनीति छात्राओं के स्वयंसेवी कोर की कप्तान थी। उनके शाही अंदाज और नेतृत्व करने के तरीके ने जिले के क्रांतिकारी नेताओं का ध्यान खींचा। सुनीति को गुप्त राइफल ट्रेनिंग और हथियार (छुरा) चलाने के लिए चुना गया। इसके तुरंत बाद वह अपनी सहपाठी शांति घोष के साथ एक प्रत्यक्ष कार्रवाई के लिए चयनित हुई और यह निर्णय लिया गया कि उन्हें सामने आना ही चाहिए। एक दिन 14 दिसंबर 1931 दोनो लड़कियां कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब की अनुमति की याचिका लेकर गई और जैसे ही स्टीवन सम्मुख आया उस पर पिस्तोल से गोलियां दाग दी। सुनीति के रिवोल्वर की पहली गोली से ही वो मर गया.. इसके बाद उन लड़कियों को गिरफ्तार कर किया गया और निर्दयता से पीटा गया। कोर्ट में और जेल में वो लड़कियां खुश रहती थी। गाती रहती थी और हंसती रहती थी। उन्हें एक शहीद की तरह मरने की उम्मीद थी, लेकिन उनके नाबालिग होने ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दिलाई। हालांकि वो थोड़ा निराश थी लेकिन उन्होंने इस निर्णय को ख़ुशी से और बहादुरी से लिया और कारागार में प्रवेश किया, कवि नाज़ुरल के प्रसिद्ध गीत ओह, इन लोहे की सलाखों को तोड़ दो, इन कारागारों को जला दो. को गाते हुए..
सात साल बाद रिहाई मिलने के बाद उन्होंने निडर भावना के साथ संघर्ष भरे जीवन का सामना किया और फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की और ग्रेजुएशन
की डिग्री हासिल की और 1947 में प्रद्योत घोष से शादी कर ली, उनके एक पुत्री हुई। 1994 में श्रीमती सुनीति चौधरी (घोष) का स्वर्गवास हुआ।
भारत मां की शांति और सुनीति जैसी बेटियों ने देश को अपना सर्वस्व मानकर कच्ची उम्र में जो योगदान दिया वह ना सिर्फ काबिल ए तारीफ है बल्कि वह नमन और वंदनीय है और जो लोग स्त्री का आकलन सिर्फ अबला के रूप में करते हैं, उनके लिए एक सशक्त और सटीक जवाब भी है।
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी
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