SARJANA CHATURVEDI

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Tuesday, 17 December 2013

मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा वेदांत होगी तो शरीर इस्लाम होगा।
- स्वामी विवेकानंद
जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान..
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान...
पांच सौ साल पहले संत कबीर दास जी ने दोहे के माध्यम से समाज को जो बात कही थी। वह आज भी लगता है समझने की जरूरत है। हम जिस शहर में रहते हैं वहां दूर से देखने पर शायद हमें जात-पात और ऊंच नीच का भेद नजर नहीं आता है लेकिन गांव में रहने वाले निम्न जाति के लोगों का घर भी सबसे दूर होने की बात भी जमीनी हकीकत है। गांव में रहने वाले सवर्ण लोगों की बात करें तो इन उच्च वर्ण के लोगों के दिल इतने छोटे होते हैं कि निम्न वर्ण के मजदूर के कप को वह अलग कोने में रख देते हैं और घर में रहने वाले छोटे बच्चों को कह दिया जाता है कि उन्हें छूना मत। वह नीच वर्ण के लोगों के हैं। वेद कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के ज्ञान को पूजो उसकी जाति को नहीं महर्षि दयानंद सरस्वती कहते हैं कि पीडि़त मानवता की सेवा करना ही सबसे बड़ा धर्म है। भारत का संविधान हर व्यक्ति को समान अधिकार प्रदान करने की बात करता है लेकिन यह सब तब एक तरफ हो जाती हैं जब देश के किसी भी हिस्से में दलित शिक्षित युवा एक उच्च वर्ण की बेटी से प्यार करके ब्याह रचा लेता है और उसकी इस गलती की सजा कभी उसके पूरे दलित समुदाय का घर जला दिया जाता है तो कभी उसके परिवार को मौत के घाट उतार दिया जाता है।
कैसा है यह सभ्य समाज समझ में नहीं आता। व्यक्ति के गुणों की पूजा क्यों नहीं की जाती यह समझ से परे है। सवर्ण परिवार में पले बच्चों को शायद इस बात का इल्म होगा कि कई बार घर के बुजुर्ग बचपन में कह देते हैं कि बेटा उस से दूर रहना वो दूसरी जाति का है और बड़ों की बात मानकर वह नादान बच्चा भी इस बात मान लेगा कि मना किया है तो दूर रहना। मगर बाद में बड़े होकर यह सवाल अक्सर मन में कौंध जाता है कि क्या किसी दलित वर्ग का व्यक्ति भी तो हमारी ही तरह ही इंसान होता है। उसे भी भगवान ने दो कान, दो आंख, एक नाक, दो हाथ और दो पैर देकर बनाया है। ईश्वर एक है उसने हमें एक सा बनाकर भेजा है तो हम यह भेद कैसे कर लेते हैं। सवाल शायद सबके मन में उठते हैं लेकिन इन सवालों का जवाब खोजने के लिए जो तैयार होते हैं। वही कट्टरपंथी ब्राहमण परिवार में जन्म लेने के बावजूद मूल शंकर से महर्षि दयानंद सरस्वती में तब्दील हो जाते हैं या फिर अपने क्रांतिकारी विचारों से युगों युगों तक पूजने वाले स्वामी विवेकानंद बन जाते हैं। विवेकानंद की जयंती 150 साल से मना रहे लोगों को जरा उनके विचारों को भी एक बार पढऩा चाहिए स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि हिन्दुओं का जीवन दर्शन वेदांत के अद्वैत इस एक शब्द में समाया है, तो उसका सारभूत अर्थ गीता के समं सर्वेषु भूतेषु इस शब्द में। जीवमात्र में एकत्व और ईश्वरत्व ही वेदांत की नींव है तब घृणा या द्वेष किसका? यहां सत्ता और नेतागिरी का कैंसर सामाजिक ही नहीं राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का निवाला लेने की मांग कर रहा है। एक ही धर्म में जांत-पांत में बैर की आग भड़क रही है। इन सबसे अपनी विचार शक्ति के अवरुद्ध हुए बगैर हमें अपने आपसे एक सवाल करना चाहिए कि क्या हम जिंदगी सुकून से जी रहे हैं? फिर ठीक कौन से धर्म की खातिर हम एक-दूसरे का खून बहाने वाले विचारों को समर्थन देकर पाल रहे हैं? धार्मिक दंगों या दहशतवाद के पीछे के अज्ञान के अंधकार से हम अब भी बाहर नहीं निकलेंगे? एक सुबह ऐसी भी होगी सर्व धर्मान पारित्यज्य का निडर उद्घोष करने वाले राम-कृष्ण की जमीं के सामान्य लोग किसी भी द्वेषपूर्ण सीख को स्वीकारने से पूरी तरह इंकार कर देंगे और तब स्वामी विवेकानंद का सपना भी उनका अपना सपना होगा। मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा वेदांत होगी तो शरीर इस्लाम होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा।
देश में धर्म और जाति के नाम पर लड़ाने का काम तो राजनेता हमेशा कराते रहेंगे क्योंकि यदि वह सही राष्ट्र भक्त होंगे तो लोगों को मजहब में क्यों बांटेंगे। वह तो दंगों के बाद जले घरों और अनाथ हुए बच्चों और विधवाओं में भी सिर्फ अपने वोटर ही तलाश करते हैं। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी कोई है जिसे जागने की जरूरत है तो वह स्वयं हम हैं क्योंकि हमें अपना अच्छा बुरा खुद समझना


होगा और इस बात को जानना होगा कि सबसे बड़ा कोई मजहब है तो वह इंसानियत का है और हजारों वर्षों से चले आ रहे इस ऊंच-नीच के भेद को खत्म करना होगा।
साहिर लुधियानबी साहब के शब्दों में -
ऐ रहबर--मुल्क--कौम बता
ये किसका लहू है, कौन मरा

ये कटते हुए तन किसके हैं
नफरत के अंधे तूफां में
लुटते हुए गुलशन किसके हैं
बदबख्त फिजाएं किसकी हैं
बर्बाद नशेमन किसके हैं
कुछ हम भी सुनें, हमको भी सुना

किस काम के हैं ये दीन धरम
जो शर्म का दामन चाक करे
किस तरह का है ये देश बता
जो बसते घरों को खाक करे
ये रूहें कैसी रूहें हैं
जो धरती को नापाक करे
आंखें तो उठा, नजऱें तो मिला

जिस राम के नाम पे खून बहे
उस राम की इज्ज़त क्या होगी
जिस दीन के हाथों लाज लुटे
उस दीन की कीमत क्या होगी
इंसान की इस जिल्लत से परे
शैतान की जिल्लत क्या होगी
ये वेद हटा, कुरान उठा

वैसे भी जब-जब लोगों ने चली आ रही परंपराओं को तोडऩे की बात कही है उन्हें इस दुनिया ने उनके चले जाने के बाद ही समझा है लेकिन यदि देश की प्रगति चाहिए तो हमें एक होना होगा सिर्फ दिमाग से नहीं दिल से भी।
मुझे किसी धर्म से कोई शिकायत नहीं बस इतनी ख्वाहिश है दिल में की...
हर एक खुश रहे, हर घर आबाद रहे...
हर एक को मिले, उसका हक...
न हो धरती और आसमां का भेद
बस हर दिल में एक-दूजे के लिए प्यार और सम्मान रहे...

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