जब पहली बार जानी अहिंसा की ताकत : बापू ने अपने जीवन में लड़े आंदोलन चाहे
वह दक्षिण अफ्रीका में हुए हों या फिर भारत में हमेशा अहिंसा के अस्त्र के
साथ ही संघर्ष किया और देश को आजाद कराकर विजित भी हुए मगर यह भी एक सवाल
है कि आखिर बापू को अहिंसा पर इतना दृढ़ विश्वास क्यों था, उनकी आत्मकथा
में उद्रधृत उनके बालपन का एक किस्सा
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बीड़ी के ठूंठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ, उसे मैं अधिक गंभीर मानता हूं। इस चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के टुकड़े की थी। उन पर मामूली-सा, लगभग 25 रुपए का, कर्ज हो गया था। उसकी अदायगी के बारे में हम दोनों भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस का कड़ा था, उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था। कड़ा कटा। कर्ज अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गई। मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूंगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिए। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे, इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ा कि उन्होंने कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। पर खुद दुखी होंगे, शायद सिर फोड़ लें। मैने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर ही लेना चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी। आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिखकर दोष स्वीकार किया जाए और क्षमा मांग ली जाए। मैंने चिट्ठी लिखकर हाथों हाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दु:ख में न डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की। मैने कांपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखों से मोती की बूंदें टपकीं। चिट्ठी भीग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आंखें मूंदी, चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे सो वापस लेट गए। मैं भी रोया। पिताजी का दु:ख समझ सका। मोती की बूंदों के उस प्रेम बाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना। इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है। मेरे लिए यह अहिंसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूं। ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है? ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असंभव है।
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जाति से किया बाहर : बापू आज सिर्फ देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हैं मगर एक समय ऐसा आया जब विदेश में अध्ययन के लिए जाने के कारण उन्हें अपनी ही जाति से बाहर कर दिया गया। बापू ने इसमें भी सार्थकता ढूंढ ली।
माता जी की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर और पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर में उमंगों के साथ बंबई पहुंचा। वहां पर समुद्री यात्रा के माध्यम से विलायत जाने की तैयारी चल रही थी। इस बीच जाति में खलबली मची। जाति की सभा बुलाई गई। अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया था और मैं जा रहा हूं, इसलिए मुझसे जवाब तलब किया जाना चाहिए। मुझे पंचायत में जाहिर होने का हुक्म मिला। मैं गया। मैं नहीं जानता कि मुझमें अचानक हिम्मत कहां से आ गई। हाजिर रहने में मुझे न तो संकोच हुआ न डर लगा। जाति के सरपंच के साथ दूर का रिश्ता भी था। पिताजी के साथ उनका संबंध अच्छा था। उन्होंने मुझसे कहा, जाति का ख्याल है कि तूने विलायत जाने का विचार किया है वह ठीक नहीं है। हमारे धर्म में समुद्र पार करने की की मनाही है, तिस पर यह भी सुना जाता है कि वहां धर्म की रक्षा नहीं हो पाती। साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता है। मैंने जवाब दिया, मुझे तो लगता है कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं है। मुझे तो वहां जाकर विद्याध्ययन ही करना है। फिर जिन बातों का आपको डर है, उनसे दूर रहने की प्रतिज्ञा मैंने अपनी माता जी के सम्मुख ली है, इसलिए मैं उनसे दूर रह सकूंगा। बहस के बाद मै भी अपने निर्णय पर अडिग था। अत: सरपंच ने आदेश दिया, यह लड़का आज से जातिच्युत माना जाएगा। जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे विदा करने जाएगा, पंच उससे जवाब तलग करेंगे और उससे सवा रुपया दण्ड का लिया जाएगा। जब में विलायत से लौटा तब भी जाति का झगड़ा मौजूद ही था। उसमें दो तड़ें पड़ गई थीं। एक पक्ष ने मुझे तुरंत जाति में ले लिया। दूसरा पक्ष न लेने पर डटा रहा। जाति में लेने वाले पक्ष को संतुष्ट करने के लिए राजकोट ले जाने से पहले भाई मुझे नासिक ले गए। वहां गंगा स्नान कराया और राजकोट पहुंचने पर जातिभोज दिया। भाई की इच्छाओं को आदेश मानकर मशीन की तरह उनकी इच्छा का अनुसरण करता रहा। जाति की जिस तड़ से मैं बहिष्कृत रहा, उसमें प्रवेश करने का प्रयत्न मैंने कभी नहीं किया, न मैंने जाति के किसी मुखिया के प्रति मन में कोई रोष रखा। जाति के बहिष्कार संबंधी कानून का मैं संपूर्ण आदर करता था। अपने सास-ससुर या बहन के घर मैं पानी तक न पीता था। मेरे इस व्यवहार का परिणाम यह हुआ कि जाति की ओर से मुझे कभी कोई कष्ट नहीं दिया गया। यही नहीं, बल्कि आज तक मैं जाति के एक विभाग में विधिवत् बहिष्कृत माना जाता हूं। फिर भी उनकी ओर से मैने सम्मान और उदारता का ही अनुभव किया है। उन्होंने मेरे कार्य में मुझे मदद भी दी है और मुझसे यह आशा तक नहीं रखी कि जाति के लिए मैं कुछ न कुछ करूं। मैं मानता हूं कि यदि मैंने जाति में सम्मिलित होने की खटपट की होती, उन्हें चिढ़ाया होता तो वे अवश्य मेरा विरोध करते और मैं इसमें फंसकर रह जाता।
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रंगभेद से पहली बार सामना : बापू ने अपने जीवन का एक लंबा समय दक्षिण अफ्रीका में बिताया और मोहन दास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी वह दक्षिण अफ्रीका से बनकर ही लौटे थे। वहां रहने वाले हिंदूस्तानी और अश्वेत लोगों के लिए संघर्ष की लंबी लड़ाई लड़ने वाले बापू का वहां जाने से पहले कभी रंगद्वेष से कोई परिचय नहीं था।
ट्रेन लगभग 9 बजे नेटाल की राजधानी मेरित्सवर्ग पहुंची। यहां बिस्तर दिया जाता था। रेल्वे के किसी नौकर ने आकर पूछा, आपको बिस्तर की जरूरत है? मैंने कहा मेरे पास अपना बिस्तर है। वह चला गया इसी बीच एक यात्री आया। उसने मेरी तरफ देखा। मुझे भिन्न वर्ण का पाकर वह परेशान हुआ, बाहर निकला और एक-दो अफसरों को लेकर आया। किसी ने मुझे कुछ न कहा। आखिर एक अफसर आया। उसने कहा, इधर आओ, तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है। मैंने कहा, मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है। उसने जवाब दिया, इसकी कोई बात नहीं। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है। मैं कहता हूं कि मुझे इस डिब्बे में डरबन से बैठाया गया है और इसी में जाने का इरादा रखता हूं। अफसर ने कहा, यह नहीं हो सकता, तुमहें उतरना पड़ेगा और न उतरे तो सिपाही उतारेगा। मैंने कहा तो सिपाही भले उतारे, मैं खुद तो नहीं उतरूंगा। सिपाही आया उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे धक्का देकर नीचे उतारा। मेरा सामान उतार लिया। मैंने दूसरे डिब्बे में जाने से इंकार कर दिया। ट्रेन चल दी। तेज ठंड में थी और वेटिंग रूम के उस कमरे में दीया तक न था। मैंने अपने धर्म का विचार किया, या तो मुझे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए,नहीं तो जो अपमान हो उन्हें सहकर प्रिटोरिया पहुंचना चाहिए और मुकदमा खत्म करके देश लौट जाना चाहिए। मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना तो नामर्दी होगी। मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है, सो तो ऊपरी कष्ट है। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है। यह महारोग है रंगद्वेष। यदि मुझमें इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो, तो उस महाशक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए। ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़े सो सब सहने चाहिए औश्र उनका विरोध रंग-द्वेष मिटानेी की दृष्टि से ही करना चाहिए।
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बड़ी कसौटी में मिली धीरज की सीख : : भारत में जातिगत भेद और छुआछूत की जड़े़ कितनी हैं। उसे बापू भी जानते थे और उन्होंने हर कदम पर उसे दूर करने के लिए पूरी दृढ़ता के साथ सामना किया, एक बार तो ऐसी स्थिति में बापू आश्रम छोड़कर जाने वाले थे...
आश्रम को कायम हुए अभी कुछ ही महीने बीते थे कि इतने में जैसी कसौटी की मुझे आशा नहीं थी, वैसी कसौटी हमारी हुई। भाई अमृतलाल ठक्कर का पत्र मिला : एक गरीब और प्रमाणिक अन्त्यज परिवार है। वह आपके आश्रम में रहना चाहता है। क्या उसे भर्ती करेंगे? मैं चौंका। ठक्करबापा जैसे पुरुष की सिफारिश लेकर कोई अन्त्यज परिवार इतनी जल्दी आएगा, इसकी मुझे जरा भी आशा न थी। मैंने साथियों को वह पत्र पढ़ने के लिए दिया। उन्होंने इसका स्वागत किया। भाई अमृतलाल ठक्कर को लिखा गया कि यदि वह परिवार आश्रम के नियमों का पालन करने को तैयार हो, तो हम उसे भर्ती करने के लिए तैयार हैं।
दूदाभाई, उनकी पत्नी दानी बहन और दूध-पीती तथा घुटनों चलती बच्ची लक्ष्मी तीनों आए। दूदाभाई बंबई में शिक्षक का काम करते थे। नियमों का पालन करने को वे तैयार थे। उन्हें आश्रम में रख लिया। साथियों में खलबली मच गई। जिस कुएं मं बंगले के मालिक का हिस्सा था, उस कुंए से पानी भरने में हमें अड़चन होने लगी। उनके पानी भरनेवाले पर हमारे पानी के छींटे पड़ जाते, तो वह भ्रष्ट हो जाता। उसने गालियां देना और दूदाभाई को सताना शुरू किया। मैंने सबसे कह दिया कि गालियां सहते जाओ और दृढ़तापूर्वक पानी भरते रहो। हमें चुपचाप गालियां सुनते देखकर वह कर्मचारी शर्मिंदा हुआ और उसने गालियां देना बंद कर दिया। पर पैसे की मदद बंद हो गई। पैसे की मदद बंद होने के साथ बहिष्कार की अफवाहें मेरे कानों तक आने लगीं। मैंने साथियों से चर्चा करके तय कर रखा था 'यदि हमारा बहिष्कार किया जाए और हमें कहीं से कोई मदद न मिले तो भी अब हम अहमदाबाद नहीं छोड़ेंगे। अन्त्यजों की बस्ती में जाकर उनके साथ रहेंगे और जो कुछ मिलेगा उससे अथवा मजदूरी करके अपना निर्वाह करेंगे।' आखिर मगनलाल ने मुझे नोटिस दी - 'अगले महीने आश्रम का खर्च चलाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं।' मैंने धीरज से जवाब दिया : 'तो हम अन्त्यजों की बस्ती में रहने जाएंगे।' मुझ पर ऐसा संकट पहली बार नहीं आया था । हर बार अंतिम घड़ी में प्रभु ने मदद भेजी है। मगनलाल के नोटिस देने के बाद तुरंत ही एक दिन सवेरे किसी लड़के ने आकर खबर दी : 'बाहर मोटर खड़ी है और एक सेठ आपको बुला रहे हैं' मैं मोटर के पास गया। सेठ ने मुझसे पूछा : 'मेरी इच्छा आश्रम को कुछ मदद देने की है, आप लेंगे। मैंने जवाब दिया : 'अगर आप कुछ देंगे, तो मैं जरूर लूंगा। मुझे कबूल करना चाहिए कि इस समय मैं आर्थिक संकट में भी हूं।' ' मैं कल इसी समय आऊंगा। तब आप आश्रम में होंगे?' मैंने हां कहा और सेठ चले गए। दूसरे दिन नियत समय पर मोटर का भोंपू बोला। लड़कों ने खबर दी। सेठ अंदर नहीं आए। मैं उनसे मिलने गया। वे मेरे हाथ पर तेरह हजार के नोट रखकर बिदा हो गए। मैंने इस मदद की कभी आशा नहीं रखी थी। मदद देने की यह रीति भी नई देखी। उन्होंने आश्रम में पहले कभी कदम नहीं रखा था। मुझे याद आता है कि मैं उनसे एक ही बार मिला था। न आश्रम में आना, न कुछ पूछना, बाहर ही बाहर पैसे देकर लौट जाना, ऐसा यह मेरा पहला ही अनुभव था। इस सहायता के कारण अन्त्यजों की बस्ती में जाना रुक गया। मुझे लगभग एक साल का खर्च मिल गया। हालांकि बाहर की तरह आश्रम के अंदर भी खलबली थी। मेरी पत्नी और आश्रम की अन्य स्त्रियों को यह पसंद न आया। दानी बहन के प्रति घृणा और उदासीनता ऐसी थी, जिसे मेरी अत्यंत सूक्ष्म आंखें देख लेती थीं और तेज कान सुन लेते थे। आर्थिक सहायता के अभाव के डर ने मुझे जरा भी चिन्तित नहीं किया था। पर यह आंतरिक क्षोभ कठिन सिद्ध हुआ। दानीबहन साधारण स्त्री थी। दूदाभाई की शिक्षा भी साधारण थी, पर उनकी बुद्धि अच्छी थी उनका धीरज मुझे पसंद आया था। उन्हें कभी-कभी गुस्सा आता था, पर कुल मिलाकर उनकी सहन शक्ति की मुझ पर अच्छी छाप पड़ी थी। मैं दूदाभाई को समझाता था कि वे छोटे-मोटे अपमान पी लिया करें। वे समझ जाते थे और दानीबहन से भी सहन करवाते थे। इस परिवार को आश्रम में रखकर बहुतेरे पाठ सीखे हैं और आरंभिक काल में ही इस बात के बिल्कुल स्पष्ट हो जाने से कि आश्रम में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं है, मर्यादा निश्चित हो गई और इस दिशा में काम सरल हो गया।
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जब जाना सादगी और स्वाबलंब का अर्थ : महात्मा गांधी ने जीवन सादगी से जिया खादी की स्वदेशी धोती और सूत कातकर चरखे से बनी चादर ही उनका पहनावा था। स्वावलंबन को महत्व देने वाले बापू ने दक्षिण अफ्रीका में जब गोरे नाई ने उनके बाल काटने से इंकार किया तब उन्होंने सादगी और स्वाबलंबन का न केवल महत्व जाना बल्कि उनके सामने भारतीय जातिय भेदभाव के दृश्य भी उभरे
भोग भोगना मैंने शुरू तो किया, पर वह टिक न सका। घर के लिए साज-सामान भी बसाया, पर मेरे मन में उसके प्रति कभी मोह उत्पन्न नहीं हो सका। इसलिए घर बसाने के साथ ही मैंने खर्च कम करना शुरू कर दिया। धोबी का खर्च भी ज्यादा मालुम हुआ। इसके अलावा, धोबी निश्चित समय पर कपड़े नहीं लौटाता था। इसलिए दो-तीन दर्जन कमीजों और उतने ही कालरों से भी मेरा काम चल नहीं पाता था। कालर में रोज बदलता था। कमीज रोज नहीं तो एक दिन के अंतर से बदलता था। इससे दोहरा खर्च होता था। मुझे यह व्यर्थ प्रतीत हुआ। अतएव मैंने धुलाई का सामान जुटाया। धुलाई-कला पर पुस्तक पढ़ी और कपड़े धोना सीखा। पत्नी को भी सिखाया। काम का कुछ बोझ तो बढ़ा ही, पर नया काम होने से उसे करने में आनंद आता था। पहली बार अपने हाथों से धोए हुए कॉलर को तो मैं कभी भूल नहीं सकता। उसमें कलफ अधिक लग गया था और इस्तरी पूरी गरम नहीं थी। तिस पर कालर के जल जाने के डर से इस्तरी को मैंने अच्छी तरह दबाया भी नहीं था। इससे कॉलर में कड़ापन तो आ गया, पर उसमें से कलफ झड़ता रहा। ऐसी हालत में मैं कोर्ट गया और वहां बारिस्टरों के लिए मजाक का साधन बन गया। पर इस तरह का मजाक सह लेने की शक्ति उस समय भी मुझ में काफी थी। मैंने सफाई देते हुए कहा, अपने हाथों कालर धोने का मेरा यह पहला प्रयोग है, इस कारण इसमें से कलफ झड़ता है। मुझे इससे कोई अड़चन नहीं होती, तिस पर आप सब लोगों के लिए विनोद की इतनी सामग्री जुटा रहा हूं, सो अलग से।
एक मित्र ने पूछा, 'पर क्या धोबियों का अकाल पड़ गया है? ' यहां धोबियों का खर्च तो मुझे असह्या मालूम होता है। कालर की कीमत के बराबर धुलाई हो जाती है और इतनी धुलाई देने के बाद भी धोबी की गुलामी करनी पड़ती है। इसकी अपेक्षा कपड़े अपने हाथ से धोना में ज्यादा पसंद करता हूं। स्वावलंबंन की यह खूबी मैं मित्रों को समझा नहीं सका।
मुझे कहना चाहिए कि आखिर धोबी के धंधे में अपने काम लायक कुशलता मैंने प्राप्त कर ली थी और घर की धुलाई धोबी की धुलाई से जरा भी घटिया नहीं होती थी। कालर का कड़ापन और चमक धोबी के धोये कालर से कम न रहती थी। गोखले के पास स्व. महादेव गोविंद रानाडे की प्रसादी-रूप एक दुपट्टा था। गोखले उस दुपट्टे को अतिशय जतन से रखते थे और विषय अवसर पर ही उसका उपयोग करते थे। जोहानिस्बर्ग में उनके सम्मान में जो भोज दिया गया था, वह एक महत्वपूर्ण अवसर था। उस अवसर पर उन्होंने जो भाषण दिया वह दक्षिण अफ्रीका में उनका बड़े-से-बड़ा भाषण था। अतएव उस अवसर पर उन्हें उक्त दुपट्टे का प्रयोग करना था। उसमें सिलवटें पड़ी हुई थीं और उस पर इस्तरी करने की जरूरत थी। धोबी का पता लगाकरउससे तुरंत इस्तरी कराना संभव न था। मैंने अपनी कला का उपयोग करने देने की अनुमति गोखले से चाही। ' मैं तुम्हारी वकालत का तो विश्वास कर लूंगा, पर इस दुपट्टे पर तुम्हें अपनी धोबी-कला का उपयोग नहीं करने दूंगा। इस दुपट्टे पर तुम दाग लगा दो तो? इसकी कीमत तुम जानते हो? यों कहकर अत्यंत उल्लास से उन्होंने प्रसादी की कथा मुझे सुनायी। मैंने फिर विनती की और दाग न पड़ने देने की जिम्मेदारी ली। मुझे इस्तरी करने की अनुमति मिली और अपनी कुशलता का प्रमाण पत्र मुझे मिल गया। अब दुनिया मुझे प्रमाण-पत्र न दे तो भी क्या?
जिस तरह मैं धोबी की गुलामी से छूटा, उसी तरह नाई की गुलामी से भी छूटने का अवसर आ गया। हजामत तो विलायत जानेवाले सब कोई हाथ से बनाना सीख ही लेते हैं, पर कोई बाल छांटना भी सीखता होगा, इसका मुझे ख्याल नहीं है। एक बार प्रिटोरिया में मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुंचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इंकार कर दिया और इंकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो अलग से। मुझे दु:ख हुआ। मैं बाजार पहुंचा। मैंने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खड़े रहकर बाल काटे। बाल जैसे-तैसे कट तो गए, पर पीछे के बाल काटने में बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाए। कोर्ट में खूब कहकहे लगे। ' तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गए थे? '
मैंने कहा : ' जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता है? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं। ' इस उत्तर से मित्रों को आश्चचर्य नहीं हुआ। असल में उस हज्जाम का कोई दोष न था। अगर वह काली चमड़ीवालों के बाल काटने लगता तो उसकी रोजी मारी जाती। हम भी अपने अछूतों के बाल ऊंची जाति के हिंदुओं हज्जामों को कहां काटने देते हैं? दक्षिण अफ्रीका में मुझे इसका बदला एक नहीं अनेक बार मिला है, और चूंकि मैं यह मानता था कि यह हमारे दोष का परिणाम है, इसलिए मुझे इस बात से कभी गुस्सा नहीं आया। स्वावलंबन और सादगी के मेरे शौक ने आगे चलकर जो तीव्र स्वरूप धारण किया, उसका वर्णन यथास्थान होगा। इस चीज की जड़ तो मेरे अंदर शुरू से ही थी। उसके फूलने-फलने के लिए केवल सिंचाई की आवश्यकता थी। वह सिंचाई अनायास ही मिल गई।
बापू से इन्होंने भी ली प्रेरणा
2 अक्टूबर 1869 को जन्में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को करोड़ों लोग अपनी प्रेरणा मानते हैं, फिर चाहे वह देश में हों या परदेश में। अपने या अपने समाज के लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले हर शख्स के लिए बापू का जीवन प्रेरणा का अद्वितीय उदाहरण है। अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा से एक इंटरव्यू में जब पूछा गया कि वह किस जीवित या मृत व्यक्ति के साथ डिनर करने की चाह रखते हैं तो उनका जवाब महात्मा गांधी था। अमेरिका में सिविल राइट्स मूवमेंट चलाने वाले और अफ्रीकी अमेरिकी करोड़ों लोगों के आदर्श और उनके लिए अहिंसात्मक आंदोलन चलाने वाले मार्टिन लूथर किंग का व्यक्तित्व भी महात्मा गांधी से प्रभावित था। वह कहा करते थे ईसा मसीह ने हमको लक्ष्य और महात्मा गांधी ने रणनीति दी है। दुनिया के जीनियस माइंड अल्बर्ट आइंस्टाइन ने तो बापू के बारे में कहा था
संदर्भ ग्रंथ : सत्य के प्रयोग - मोहनदास करमचंद गांधी
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी
कि आने वाली पीढ़ियां शायद ही इस बात पर यकीन करेंगी कि कभी पृथ्वी पर ऐसा हाड़-मांस का पुतला भी चला था। दक्षिण अफ्रीकी गांधी के नाम से मशहूर नेल्सन मंडेला की भले ही बापू से कभी मुलाकात न हुई हो मगर बापू की शिक्षा हमेशा उनके 27 साल के जेल के अंधेरे जीवन में रोशनी का काम करती रही।
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बीड़ी के ठूंठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ, उसे मैं अधिक गंभीर मानता हूं। इस चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के टुकड़े की थी। उन पर मामूली-सा, लगभग 25 रुपए का, कर्ज हो गया था। उसकी अदायगी के बारे में हम दोनों भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस का कड़ा था, उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था। कड़ा कटा। कर्ज अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गई। मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूंगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिए। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे, इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ा कि उन्होंने कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। पर खुद दुखी होंगे, शायद सिर फोड़ लें। मैने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर ही लेना चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी। आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिखकर दोष स्वीकार किया जाए और क्षमा मांग ली जाए। मैंने चिट्ठी लिखकर हाथों हाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दु:ख में न डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की। मैने कांपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखों से मोती की बूंदें टपकीं। चिट्ठी भीग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आंखें मूंदी, चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे सो वापस लेट गए। मैं भी रोया। पिताजी का दु:ख समझ सका। मोती की बूंदों के उस प्रेम बाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना। इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है। मेरे लिए यह अहिंसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूं। ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है? ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असंभव है।
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जाति से किया बाहर : बापू आज सिर्फ देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हैं मगर एक समय ऐसा आया जब विदेश में अध्ययन के लिए जाने के कारण उन्हें अपनी ही जाति से बाहर कर दिया गया। बापू ने इसमें भी सार्थकता ढूंढ ली।
माता जी की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर और पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर में उमंगों के साथ बंबई पहुंचा। वहां पर समुद्री यात्रा के माध्यम से विलायत जाने की तैयारी चल रही थी। इस बीच जाति में खलबली मची। जाति की सभा बुलाई गई। अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया था और मैं जा रहा हूं, इसलिए मुझसे जवाब तलब किया जाना चाहिए। मुझे पंचायत में जाहिर होने का हुक्म मिला। मैं गया। मैं नहीं जानता कि मुझमें अचानक हिम्मत कहां से आ गई। हाजिर रहने में मुझे न तो संकोच हुआ न डर लगा। जाति के सरपंच के साथ दूर का रिश्ता भी था। पिताजी के साथ उनका संबंध अच्छा था। उन्होंने मुझसे कहा, जाति का ख्याल है कि तूने विलायत जाने का विचार किया है वह ठीक नहीं है। हमारे धर्म में समुद्र पार करने की की मनाही है, तिस पर यह भी सुना जाता है कि वहां धर्म की रक्षा नहीं हो पाती। साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता है। मैंने जवाब दिया, मुझे तो लगता है कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं है। मुझे तो वहां जाकर विद्याध्ययन ही करना है। फिर जिन बातों का आपको डर है, उनसे दूर रहने की प्रतिज्ञा मैंने अपनी माता जी के सम्मुख ली है, इसलिए मैं उनसे दूर रह सकूंगा। बहस के बाद मै भी अपने निर्णय पर अडिग था। अत: सरपंच ने आदेश दिया, यह लड़का आज से जातिच्युत माना जाएगा। जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे विदा करने जाएगा, पंच उससे जवाब तलग करेंगे और उससे सवा रुपया दण्ड का लिया जाएगा। जब में विलायत से लौटा तब भी जाति का झगड़ा मौजूद ही था। उसमें दो तड़ें पड़ गई थीं। एक पक्ष ने मुझे तुरंत जाति में ले लिया। दूसरा पक्ष न लेने पर डटा रहा। जाति में लेने वाले पक्ष को संतुष्ट करने के लिए राजकोट ले जाने से पहले भाई मुझे नासिक ले गए। वहां गंगा स्नान कराया और राजकोट पहुंचने पर जातिभोज दिया। भाई की इच्छाओं को आदेश मानकर मशीन की तरह उनकी इच्छा का अनुसरण करता रहा। जाति की जिस तड़ से मैं बहिष्कृत रहा, उसमें प्रवेश करने का प्रयत्न मैंने कभी नहीं किया, न मैंने जाति के किसी मुखिया के प्रति मन में कोई रोष रखा। जाति के बहिष्कार संबंधी कानून का मैं संपूर्ण आदर करता था। अपने सास-ससुर या बहन के घर मैं पानी तक न पीता था। मेरे इस व्यवहार का परिणाम यह हुआ कि जाति की ओर से मुझे कभी कोई कष्ट नहीं दिया गया। यही नहीं, बल्कि आज तक मैं जाति के एक विभाग में विधिवत् बहिष्कृत माना जाता हूं। फिर भी उनकी ओर से मैने सम्मान और उदारता का ही अनुभव किया है। उन्होंने मेरे कार्य में मुझे मदद भी दी है और मुझसे यह आशा तक नहीं रखी कि जाति के लिए मैं कुछ न कुछ करूं। मैं मानता हूं कि यदि मैंने जाति में सम्मिलित होने की खटपट की होती, उन्हें चिढ़ाया होता तो वे अवश्य मेरा विरोध करते और मैं इसमें फंसकर रह जाता।
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रंगभेद से पहली बार सामना : बापू ने अपने जीवन का एक लंबा समय दक्षिण अफ्रीका में बिताया और मोहन दास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी वह दक्षिण अफ्रीका से बनकर ही लौटे थे। वहां रहने वाले हिंदूस्तानी और अश्वेत लोगों के लिए संघर्ष की लंबी लड़ाई लड़ने वाले बापू का वहां जाने से पहले कभी रंगद्वेष से कोई परिचय नहीं था।
ट्रेन लगभग 9 बजे नेटाल की राजधानी मेरित्सवर्ग पहुंची। यहां बिस्तर दिया जाता था। रेल्वे के किसी नौकर ने आकर पूछा, आपको बिस्तर की जरूरत है? मैंने कहा मेरे पास अपना बिस्तर है। वह चला गया इसी बीच एक यात्री आया। उसने मेरी तरफ देखा। मुझे भिन्न वर्ण का पाकर वह परेशान हुआ, बाहर निकला और एक-दो अफसरों को लेकर आया। किसी ने मुझे कुछ न कहा। आखिर एक अफसर आया। उसने कहा, इधर आओ, तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है। मैंने कहा, मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है। उसने जवाब दिया, इसकी कोई बात नहीं। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है। मैं कहता हूं कि मुझे इस डिब्बे में डरबन से बैठाया गया है और इसी में जाने का इरादा रखता हूं। अफसर ने कहा, यह नहीं हो सकता, तुमहें उतरना पड़ेगा और न उतरे तो सिपाही उतारेगा। मैंने कहा तो सिपाही भले उतारे, मैं खुद तो नहीं उतरूंगा। सिपाही आया उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे धक्का देकर नीचे उतारा। मेरा सामान उतार लिया। मैंने दूसरे डिब्बे में जाने से इंकार कर दिया। ट्रेन चल दी। तेज ठंड में थी और वेटिंग रूम के उस कमरे में दीया तक न था। मैंने अपने धर्म का विचार किया, या तो मुझे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए,नहीं तो जो अपमान हो उन्हें सहकर प्रिटोरिया पहुंचना चाहिए और मुकदमा खत्म करके देश लौट जाना चाहिए। मुकदमा अधूरा छोड़कर भागना तो नामर्दी होगी। मुझे जो कष्ट सहना पड़ा है, सो तो ऊपरी कष्ट है। वह गहराई तक पैठे हुए महारोग का लक्षण है। यह महारोग है रंगद्वेष। यदि मुझमें इस गहरे रोग को मिटाने की शक्ति हो, तो उस महाशक्ति का उपयोग मुझे करना चाहिए। ऐसा करते हुए स्वयं जो कष्ट सहने पड़े सो सब सहने चाहिए औश्र उनका विरोध रंग-द्वेष मिटानेी की दृष्टि से ही करना चाहिए।
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बड़ी कसौटी में मिली धीरज की सीख : : भारत में जातिगत भेद और छुआछूत की जड़े़ कितनी हैं। उसे बापू भी जानते थे और उन्होंने हर कदम पर उसे दूर करने के लिए पूरी दृढ़ता के साथ सामना किया, एक बार तो ऐसी स्थिति में बापू आश्रम छोड़कर जाने वाले थे...
आश्रम को कायम हुए अभी कुछ ही महीने बीते थे कि इतने में जैसी कसौटी की मुझे आशा नहीं थी, वैसी कसौटी हमारी हुई। भाई अमृतलाल ठक्कर का पत्र मिला : एक गरीब और प्रमाणिक अन्त्यज परिवार है। वह आपके आश्रम में रहना चाहता है। क्या उसे भर्ती करेंगे? मैं चौंका। ठक्करबापा जैसे पुरुष की सिफारिश लेकर कोई अन्त्यज परिवार इतनी जल्दी आएगा, इसकी मुझे जरा भी आशा न थी। मैंने साथियों को वह पत्र पढ़ने के लिए दिया। उन्होंने इसका स्वागत किया। भाई अमृतलाल ठक्कर को लिखा गया कि यदि वह परिवार आश्रम के नियमों का पालन करने को तैयार हो, तो हम उसे भर्ती करने के लिए तैयार हैं।
दूदाभाई, उनकी पत्नी दानी बहन और दूध-पीती तथा घुटनों चलती बच्ची लक्ष्मी तीनों आए। दूदाभाई बंबई में शिक्षक का काम करते थे। नियमों का पालन करने को वे तैयार थे। उन्हें आश्रम में रख लिया। साथियों में खलबली मच गई। जिस कुएं मं बंगले के मालिक का हिस्सा था, उस कुंए से पानी भरने में हमें अड़चन होने लगी। उनके पानी भरनेवाले पर हमारे पानी के छींटे पड़ जाते, तो वह भ्रष्ट हो जाता। उसने गालियां देना और दूदाभाई को सताना शुरू किया। मैंने सबसे कह दिया कि गालियां सहते जाओ और दृढ़तापूर्वक पानी भरते रहो। हमें चुपचाप गालियां सुनते देखकर वह कर्मचारी शर्मिंदा हुआ और उसने गालियां देना बंद कर दिया। पर पैसे की मदद बंद हो गई। पैसे की मदद बंद होने के साथ बहिष्कार की अफवाहें मेरे कानों तक आने लगीं। मैंने साथियों से चर्चा करके तय कर रखा था 'यदि हमारा बहिष्कार किया जाए और हमें कहीं से कोई मदद न मिले तो भी अब हम अहमदाबाद नहीं छोड़ेंगे। अन्त्यजों की बस्ती में जाकर उनके साथ रहेंगे और जो कुछ मिलेगा उससे अथवा मजदूरी करके अपना निर्वाह करेंगे।' आखिर मगनलाल ने मुझे नोटिस दी - 'अगले महीने आश्रम का खर्च चलाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं।' मैंने धीरज से जवाब दिया : 'तो हम अन्त्यजों की बस्ती में रहने जाएंगे।' मुझ पर ऐसा संकट पहली बार नहीं आया था । हर बार अंतिम घड़ी में प्रभु ने मदद भेजी है। मगनलाल के नोटिस देने के बाद तुरंत ही एक दिन सवेरे किसी लड़के ने आकर खबर दी : 'बाहर मोटर खड़ी है और एक सेठ आपको बुला रहे हैं' मैं मोटर के पास गया। सेठ ने मुझसे पूछा : 'मेरी इच्छा आश्रम को कुछ मदद देने की है, आप लेंगे। मैंने जवाब दिया : 'अगर आप कुछ देंगे, तो मैं जरूर लूंगा। मुझे कबूल करना चाहिए कि इस समय मैं आर्थिक संकट में भी हूं।' ' मैं कल इसी समय आऊंगा। तब आप आश्रम में होंगे?' मैंने हां कहा और सेठ चले गए। दूसरे दिन नियत समय पर मोटर का भोंपू बोला। लड़कों ने खबर दी। सेठ अंदर नहीं आए। मैं उनसे मिलने गया। वे मेरे हाथ पर तेरह हजार के नोट रखकर बिदा हो गए। मैंने इस मदद की कभी आशा नहीं रखी थी। मदद देने की यह रीति भी नई देखी। उन्होंने आश्रम में पहले कभी कदम नहीं रखा था। मुझे याद आता है कि मैं उनसे एक ही बार मिला था। न आश्रम में आना, न कुछ पूछना, बाहर ही बाहर पैसे देकर लौट जाना, ऐसा यह मेरा पहला ही अनुभव था। इस सहायता के कारण अन्त्यजों की बस्ती में जाना रुक गया। मुझे लगभग एक साल का खर्च मिल गया। हालांकि बाहर की तरह आश्रम के अंदर भी खलबली थी। मेरी पत्नी और आश्रम की अन्य स्त्रियों को यह पसंद न आया। दानी बहन के प्रति घृणा और उदासीनता ऐसी थी, जिसे मेरी अत्यंत सूक्ष्म आंखें देख लेती थीं और तेज कान सुन लेते थे। आर्थिक सहायता के अभाव के डर ने मुझे जरा भी चिन्तित नहीं किया था। पर यह आंतरिक क्षोभ कठिन सिद्ध हुआ। दानीबहन साधारण स्त्री थी। दूदाभाई की शिक्षा भी साधारण थी, पर उनकी बुद्धि अच्छी थी उनका धीरज मुझे पसंद आया था। उन्हें कभी-कभी गुस्सा आता था, पर कुल मिलाकर उनकी सहन शक्ति की मुझ पर अच्छी छाप पड़ी थी। मैं दूदाभाई को समझाता था कि वे छोटे-मोटे अपमान पी लिया करें। वे समझ जाते थे और दानीबहन से भी सहन करवाते थे। इस परिवार को आश्रम में रखकर बहुतेरे पाठ सीखे हैं और आरंभिक काल में ही इस बात के बिल्कुल स्पष्ट हो जाने से कि आश्रम में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं है, मर्यादा निश्चित हो गई और इस दिशा में काम सरल हो गया।
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जब जाना सादगी और स्वाबलंब का अर्थ : महात्मा गांधी ने जीवन सादगी से जिया खादी की स्वदेशी धोती और सूत कातकर चरखे से बनी चादर ही उनका पहनावा था। स्वावलंबन को महत्व देने वाले बापू ने दक्षिण अफ्रीका में जब गोरे नाई ने उनके बाल काटने से इंकार किया तब उन्होंने सादगी और स्वाबलंबन का न केवल महत्व जाना बल्कि उनके सामने भारतीय जातिय भेदभाव के दृश्य भी उभरे
भोग भोगना मैंने शुरू तो किया, पर वह टिक न सका। घर के लिए साज-सामान भी बसाया, पर मेरे मन में उसके प्रति कभी मोह उत्पन्न नहीं हो सका। इसलिए घर बसाने के साथ ही मैंने खर्च कम करना शुरू कर दिया। धोबी का खर्च भी ज्यादा मालुम हुआ। इसके अलावा, धोबी निश्चित समय पर कपड़े नहीं लौटाता था। इसलिए दो-तीन दर्जन कमीजों और उतने ही कालरों से भी मेरा काम चल नहीं पाता था। कालर में रोज बदलता था। कमीज रोज नहीं तो एक दिन के अंतर से बदलता था। इससे दोहरा खर्च होता था। मुझे यह व्यर्थ प्रतीत हुआ। अतएव मैंने धुलाई का सामान जुटाया। धुलाई-कला पर पुस्तक पढ़ी और कपड़े धोना सीखा। पत्नी को भी सिखाया। काम का कुछ बोझ तो बढ़ा ही, पर नया काम होने से उसे करने में आनंद आता था। पहली बार अपने हाथों से धोए हुए कॉलर को तो मैं कभी भूल नहीं सकता। उसमें कलफ अधिक लग गया था और इस्तरी पूरी गरम नहीं थी। तिस पर कालर के जल जाने के डर से इस्तरी को मैंने अच्छी तरह दबाया भी नहीं था। इससे कॉलर में कड़ापन तो आ गया, पर उसमें से कलफ झड़ता रहा। ऐसी हालत में मैं कोर्ट गया और वहां बारिस्टरों के लिए मजाक का साधन बन गया। पर इस तरह का मजाक सह लेने की शक्ति उस समय भी मुझ में काफी थी। मैंने सफाई देते हुए कहा, अपने हाथों कालर धोने का मेरा यह पहला प्रयोग है, इस कारण इसमें से कलफ झड़ता है। मुझे इससे कोई अड़चन नहीं होती, तिस पर आप सब लोगों के लिए विनोद की इतनी सामग्री जुटा रहा हूं, सो अलग से।
एक मित्र ने पूछा, 'पर क्या धोबियों का अकाल पड़ गया है? ' यहां धोबियों का खर्च तो मुझे असह्या मालूम होता है। कालर की कीमत के बराबर धुलाई हो जाती है और इतनी धुलाई देने के बाद भी धोबी की गुलामी करनी पड़ती है। इसकी अपेक्षा कपड़े अपने हाथ से धोना में ज्यादा पसंद करता हूं। स्वावलंबंन की यह खूबी मैं मित्रों को समझा नहीं सका।
मुझे कहना चाहिए कि आखिर धोबी के धंधे में अपने काम लायक कुशलता मैंने प्राप्त कर ली थी और घर की धुलाई धोबी की धुलाई से जरा भी घटिया नहीं होती थी। कालर का कड़ापन और चमक धोबी के धोये कालर से कम न रहती थी। गोखले के पास स्व. महादेव गोविंद रानाडे की प्रसादी-रूप एक दुपट्टा था। गोखले उस दुपट्टे को अतिशय जतन से रखते थे और विषय अवसर पर ही उसका उपयोग करते थे। जोहानिस्बर्ग में उनके सम्मान में जो भोज दिया गया था, वह एक महत्वपूर्ण अवसर था। उस अवसर पर उन्होंने जो भाषण दिया वह दक्षिण अफ्रीका में उनका बड़े-से-बड़ा भाषण था। अतएव उस अवसर पर उन्हें उक्त दुपट्टे का प्रयोग करना था। उसमें सिलवटें पड़ी हुई थीं और उस पर इस्तरी करने की जरूरत थी। धोबी का पता लगाकरउससे तुरंत इस्तरी कराना संभव न था। मैंने अपनी कला का उपयोग करने देने की अनुमति गोखले से चाही। ' मैं तुम्हारी वकालत का तो विश्वास कर लूंगा, पर इस दुपट्टे पर तुम्हें अपनी धोबी-कला का उपयोग नहीं करने दूंगा। इस दुपट्टे पर तुम दाग लगा दो तो? इसकी कीमत तुम जानते हो? यों कहकर अत्यंत उल्लास से उन्होंने प्रसादी की कथा मुझे सुनायी। मैंने फिर विनती की और दाग न पड़ने देने की जिम्मेदारी ली। मुझे इस्तरी करने की अनुमति मिली और अपनी कुशलता का प्रमाण पत्र मुझे मिल गया। अब दुनिया मुझे प्रमाण-पत्र न दे तो भी क्या?
जिस तरह मैं धोबी की गुलामी से छूटा, उसी तरह नाई की गुलामी से भी छूटने का अवसर आ गया। हजामत तो विलायत जानेवाले सब कोई हाथ से बनाना सीख ही लेते हैं, पर कोई बाल छांटना भी सीखता होगा, इसका मुझे ख्याल नहीं है। एक बार प्रिटोरिया में मैं एक अंग्रेज हज्जाम की दुकान पर पहुंचा। उसने मेरी हजामत बनाने से साफ इंकार कर दिया और इंकार करते हुए जो तिरस्कार प्रकट किया, सो अलग से। मुझे दु:ख हुआ। मैं बाजार पहुंचा। मैंने बाल काटने की मशीन खरीदी और आईने के सामने खड़े रहकर बाल काटे। बाल जैसे-तैसे कट तो गए, पर पीछे के बाल काटने में बड़ी कठिनाई हुई। सीधे तो वे कट ही न पाए। कोर्ट में खूब कहकहे लगे। ' तुम्हारे बाल ऐसे क्यों हो गए हैं? सिर पर चूहे तो नहीं चढ़ गए थे? '
मैंने कहा : ' जी नहीं, मेरे काले सिर को गोरा हज्जाम कैसे छू सकता है? इसलिए कैसे भी क्यों न हों, अपने हाथ से काटे हुए बाल मुझे अधिक प्रिय हैं। ' इस उत्तर से मित्रों को आश्चचर्य नहीं हुआ। असल में उस हज्जाम का कोई दोष न था। अगर वह काली चमड़ीवालों के बाल काटने लगता तो उसकी रोजी मारी जाती। हम भी अपने अछूतों के बाल ऊंची जाति के हिंदुओं हज्जामों को कहां काटने देते हैं? दक्षिण अफ्रीका में मुझे इसका बदला एक नहीं अनेक बार मिला है, और चूंकि मैं यह मानता था कि यह हमारे दोष का परिणाम है, इसलिए मुझे इस बात से कभी गुस्सा नहीं आया। स्वावलंबन और सादगी के मेरे शौक ने आगे चलकर जो तीव्र स्वरूप धारण किया, उसका वर्णन यथास्थान होगा। इस चीज की जड़ तो मेरे अंदर शुरू से ही थी। उसके फूलने-फलने के लिए केवल सिंचाई की आवश्यकता थी। वह सिंचाई अनायास ही मिल गई।
बापू से इन्होंने भी ली प्रेरणा
2 अक्टूबर 1869 को जन्में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को करोड़ों लोग अपनी प्रेरणा मानते हैं, फिर चाहे वह देश में हों या परदेश में। अपने या अपने समाज के लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले हर शख्स के लिए बापू का जीवन प्रेरणा का अद्वितीय उदाहरण है। अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा से एक इंटरव्यू में जब पूछा गया कि वह किस जीवित या मृत व्यक्ति के साथ डिनर करने की चाह रखते हैं तो उनका जवाब महात्मा गांधी था। अमेरिका में सिविल राइट्स मूवमेंट चलाने वाले और अफ्रीकी अमेरिकी करोड़ों लोगों के आदर्श और उनके लिए अहिंसात्मक आंदोलन चलाने वाले मार्टिन लूथर किंग का व्यक्तित्व भी महात्मा गांधी से प्रभावित था। वह कहा करते थे ईसा मसीह ने हमको लक्ष्य और महात्मा गांधी ने रणनीति दी है। दुनिया के जीनियस माइंड अल्बर्ट आइंस्टाइन ने तो बापू के बारे में कहा था
संदर्भ ग्रंथ : सत्य के प्रयोग - मोहनदास करमचंद गांधी
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी
कि आने वाली पीढ़ियां शायद ही इस बात पर यकीन करेंगी कि कभी पृथ्वी पर ऐसा हाड़-मांस का पुतला भी चला था। दक्षिण अफ्रीकी गांधी के नाम से मशहूर नेल्सन मंडेला की भले ही बापू से कभी मुलाकात न हुई हो मगर बापू की शिक्षा हमेशा उनके 27 साल के जेल के अंधेरे जीवन में रोशनी का काम करती रही।