SARJANA CHATURVEDI

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Thursday 30 January 2014

जानती हूं बिटिया तेरा कोई कसूर नहीं

छोटी सी थी गुडिय़ा तो आस पड़ोस में रहने वाले अंकल, भैया या फिर चाचा संबोधन जो भी हो सबकी लाडली थी। सबकी प्यारी नन्ही परी को कभी कोई चॉकलेट दिला देता तो कभी कोई उसे उसकी पसंदीदा गटागट की गोलियां दिला देता और उस नन्हीं सी गुडिय़ा के चेहरे पर ऐसी मुस्कान बिखर जाती कि मानो उसे सारी दुनिया की खुशियां एक पल में ही मिल गई हों। सब भी उसकी तोतली भाषा में ढेर सारी बातों को सुनकर बहुत खुश होते लेकिन अब नहीं। अब वह गुडिय़ा पहले जैसी नहीं रही क्यों क्योंकि अब पांच साल की उस बिटिया को अब मम्मी या दादी एक पल के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देती हैं। उसे खेलना भी है तो अपने ही घर में मगर जब कभी वह जिद करती है और अपनी तोतली जुबान में बोलती है हमें भी थेलने जाना है तो मां उस नन्ही बच्ची पर कभी खीज जाती है तो कभी गुस्से में एक तमाचा जड़ देती है। और वह आंखों में आंसू लिए अपनी खेलने की गुडिय़ा के साथ सो जाती है। मां आती है चुपचाप उसे सोते हुए देखती है और खुद आंखों में आंसू भरकर खुद से कहती है
जानती हूं बिटिया तेरा कोई कसूर नहीं है मगर क्या करूं यह दुनिया अब पहले जैसी नहींं है। सब कुछ बदल गया है अब पांच साल की बच्ची में उसे मासूमियत नहीं दिखती ना किसी वृद्धा में मां का वात्सल्य न किसी लड़की में बहन की तस्वीर अब तो नजर आती है तो सिर्फ अपनी हवस बुझाने का जरिया। आज मां कुछ परेशान है, क्योंकि आज सुबह ही उसने अखबार में पांच साल की बिटिया से रिश्तेदार द्वारा बलात्कार की खबर जो पढ़ी है। अब कैसे सोएगी यह मां पता नहीं....
सब कहते हैं आंसू कमजोर लोगों की निशानी है लेकिन जब कोई साथ ना हो तो किसी का भी साथ हो वह मजबूत ही लगता है।
उस समय आंसू कमजोर कैसे हो सकते हैं।

Friday 24 January 2014

दक्षिण की झांसी की रानी - वीरांगना रानी चेन्नम्मा



खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी... देश की आजादी के लिए लडऩे वाली वीरांगनाओं में झांसी की रानी के बारे में तो हम सब जानते ही हैं लेकिन अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली वीरांगनाओं की सूची में ऐसी कई बालाएं हैं जिनके बारे में देशवासी बहुत कम जानते हैं। ऐसा ही एक नाम है रानी चिन्नम्मा का। 
उत्तर भारत में जो स्थान स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है, कर्नाटक में वही स्थान कित्तूर की रानी चेन्नम्मा का है। चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेजों की सेना को उनके सामने दो बार मुंह की खानी पड़ी थी। रानी चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश के विभिन्न हिस्सों खासकर कर्नाटक में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है और उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले ही रानी चेनम्मा ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। हालांकि उन्हें युद्ध में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया। अंग्रेजों के कैद में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया।
 चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। इस सुंदर बालिका का जन्म 1778 ई. में दक्षिण के काकातीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भांति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई।
चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहां हीरे-जवाहरात के बाजार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी चल बसे। तब उनकी बड़ी रानी रुद्रम्मा का पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज गद्दी पर बैठा और चेन्नम्मा के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम चेन्नम्मा देखेगी। शिवलिंग की भी जल्दी मृत्यु हो गई।
अंग्रेजों की नीति डाक्ट्रिन आफ लैप्स के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति आने पर अंग्रेज उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। कुमार के अनुसार रानी चेनम्मा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में इस नीति की अहम भूमिका थी। 1857 के आंदोलन में भी इस नीति की प्रमुख भूमिका थी और अंग्रेजों की इस नीति सहित विभिन्न नीतियों का विरोध करते हुए कई रजवाड़ों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। डाक्ट्रिन आफ लैप्स के अलावा रानी चेनम्मा का अंग्रेजों की कर नीति को लेकर भी विरोध था और उन्होंने उसे मुखर आवाज दी। रानी चेनम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का विरोध किया।
 अंग्रेजों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। रानी चेन्नम्मा ने सन् 1824 में (सन् 1857 के भारत के स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम से भी 33 वर्ष पूर्व) उन्होने हड़प नीति (डॉक्ट्रिन आफ लेप्स) के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था।
आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेजों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने बस कुछ मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात किले के फाटक खुले और दो हजार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी। थैकरे भाग गया। दो देशद्रोही को रानी चेन्नम्मा ने तलवार के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेजों ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फांसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई। 21 फरवरी 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया।
भले ही रानी चिन्नम्मा अंग्रेजों को परास्त ना कर पायी हो लेकिन मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम और अपनी वीरता के कारण अंग्रेज उनके विश्वास को अडिग नहीं कर पाए। स्त्री के साहस की मिसाल रानी चिन्नम्मा भले ही इतिहास के पन्नों में समा गई हों लेकिन उनका जीवन और साहस उन्हें उन विजित राजाओं से कहीं ऊपर रखता है जो आत्मसम्मान और गुलामी की कीमत पर अपनी साख और राज्य को बचाकर रखते हैं।
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी

Tuesday 7 January 2014

शक्ति का अवतार थीं शांति - सुनीति


शक्ति का अवतार थीं शांति - सुनीति
कहते हैं कि स्त्री यदि वात्सल्य की देवी है तो वह रणचण्डी का रूप भी धारण कर लेती है। वह ममता की मूरत है तो वह शक्ति स्वरूपा भी है। स्त्री यदि सृजक है तो वह दुष्ट नासिनी भी है। नारी जाति की महानता को लेकर हर दौर में अलग-अलग बातें कही गई हैं। देश के लिए मर मिटने और त्याग देने में भी देश की महिलाओं ने अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है। बस अंतर यह है कि कुछ का योगदान नजर आ गया तो कुछ इतिहास के पन्नों में अपना योगदान देकर भारत मां के चरणों में खुद को समर्पित करके वहीं शांत हो गईं। ऐसी ही गाथा है शांति घोष और सुनीति चौधरी जैसी भारत मां की दो सपूतनियों की जिनके बारे में भले आज हिंदुस्तानियों को शायद पता भी ना हो मगर उनका योगदान भुलाने लायक नहीं है।
 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे छोटी उम्र की क्रांतिकारी तरुणियों के बारे में जानते हैं। भगत सिंह की फांसी का बदला लेने के लिए भारत की आजादी के क्रांतिकारी इतिहास की सबसे तरुण बालाएं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने 14 दिसम्बर 1931 को त्रिपुरा के कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन को गोली मार दी। इन युवा लड़कियों के साहसिकता पूर्ण कार्य से संपूर्ण देश अचंभित और रोमांचित था।
स्वामी विवेकानंद ने एक बार भारतीय युवकों का आह्वान किया, मत भूलो कि तुम्हारा जन्म मातृभूमि की वेदी पर स्वयं को बलिदान करने के लिए हुआ है। एक दिन किसको पता था कि स्वामी जी की नजदीकी बहन की पोती शांति घोष स्वामी जी के इस सन्देश के लिए अपना किशोर जीवन देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर देगी। शांति घोष 22 नवम्बर 1916 को कलकत्ता में पैदा हुई। उनके पिता देवेन्द्र नाथ घोष मूल रूप से बारीसाल जिले के थे, कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफेसर थे। उनकी देशभक्ति की भावना ने शांति को कम उम्र से ही प्रभावित किया।
शांति की ऑटोबायोग्राफी पर प्रसिद्ध  क्रांतिकारी बिमल प्रतिभा देवी ने लिखा बंकिम की आनंद मठ की शांति जैसी बनना। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा, नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ, हे माताओ..इन सबके के आशीर्वाद ने युवा शांति को प्रेरित किया और उसने स्वयं को उस मिशन के लिए तैयार किया। जब वह फज़ुनिस्सा गल्र्स स्कूल की छात्रा थी तो अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से युगांतर पार्टी में शामिल हुई और क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लिया और जल्द ही वह दिन आया उन्होंने अपना युवा जीवन मुस्कुराते हुए बहादुरी से मातृभूमि को समर्पित कर दिया।
14 दिसम्बर 1931 को अपनी सहपाठी सुनीति चौधरी के साथ  कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन को गोली मार दी। इन युवा लड़कियों के साहसिकता पूर्ण कार्य से संपूर्ण देश अचंभित और रोमांचित था। लाखों देशवासियों की प्रशंसा और स्नेह को साथ लेकर शांति अपनी साथी सुनीति के साथ आजीवन कारावास के लिए चली गयी। जेल में शांति और सुनीति को कुछ समय अलग रखा गया। यह एकांत  कारावास चौदह साल की लड़कियों के लिए दुखी कर देने वाला था। 1937 में उन्हें कई राजनैतिक कैदियों के साथ शीघ्र रिहाई मिली। उन्होंने फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की। 1942 में उन्होंने चटगांव के एक भूतपूर्व क्रांतिकारी कार्यकर्ता चितरंजन दास से शादी की... शांति एक लम्बे समय (1953 -1968 ) तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद् और विधानसभा की सदस्या रहीं। उनकी आत्मकथा पुस्तक अरुनबानी ने बहुत प्रशंसा प्राप्त की थी। 28 मार्च 1989 को श्रीमती शांति घोष (दास) ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
उन्हीं की दूजी साथी सुनीति चौधरी  स्वतंत्रता संग्राम में एक असाधारण भूमिका निभाने वाली का जन्म मई 22, 1917 पूर्वी बंगाल के त्रिपुरा जिले के इब्राहिमपुर गांव में एक साधारण हिंदू मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी उमाचरण सरकारी सेवा में थे और मां सुरससुन्दरी चौधरी, एक शांत और पवित्र विचारों वाली औरत थी जिन्होंने सुनीति के तूफानी कैरियर पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा। जब वह कच्ची उम्र में स्कूल में थी तो उसके दो बड़े भाई कॉलेज में क्रांतिकारी आन्दोलन में थे। सुनीति युगांतर पार्टी में अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी द्वारा भर्ती की गई थी। कोमिल्ला में सुनीति छात्राओं के स्वयंसेवी कोर की कप्तान थी। उनके शाही अंदाज और नेतृत्व करने के तरीके ने जिले के क्रांतिकारी नेताओं का ध्यान खींचा। सुनीति को गुप्त राइफल ट्रेनिंग और हथियार (छुरा) चलाने के लिए चुना गया। इसके तुरंत बाद वह अपनी सहपाठी शांति घोष के साथ एक प्रत्यक्ष कार्रवाई के लिए चयनित हुई और यह निर्णय लिया गया कि उन्हें सामने आना ही चाहिए। एक दिन 14 दिसंबर 1931 दोनो लड़कियां कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब की अनुमति की याचिका लेकर गई और जैसे ही स्टीवन सम्मुख आया उस पर पिस्तोल से गोलियां दाग दी। सुनीति के रिवोल्वर की पहली गोली से ही वो मर गया.. इसके बाद उन लड़कियों को गिरफ्तार कर किया गया और निर्दयता से पीटा गया। कोर्ट में और जेल में वो लड़कियां खुश रहती थी। गाती रहती थी और हंसती रहती थी। उन्हें एक शहीद की तरह मरने की उम्मीद थी, लेकिन उनके नाबालिग होने ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दिलाई। हालांकि वो थोड़ा निराश थी लेकिन उन्होंने इस निर्णय को ख़ुशी से और बहादुरी से लिया और कारागार में प्रवेश किया, कवि नाज़ुरल के प्रसिद्ध गीत ओह, इन लोहे की सलाखों को तोड़ दो, इन कारागारों को जला दो. को गाते हुए..
सात साल बाद रिहाई मिलने के बाद उन्होंने निडर भावना के साथ संघर्ष भरे जीवन का सामना किया और फिर से अपनी पढ़ाई शुरू की और ग्रेजुएशन
की डिग्री हासिल की और 1947 में प्रद्योत घोष से शादी कर ली, उनके एक पुत्री हुई। 1994 में श्रीमती सुनीति चौधरी (घोष) का स्वर्गवास हुआ।
भारत मां की शांति और सुनीति जैसी बेटियों ने देश को अपना सर्वस्व मानकर कच्ची उम्र में जो योगदान दिया वह ना सिर्फ काबिल ए तारीफ है बल्कि वह नमन और वंदनीय है और जो लोग स्त्री का आकलन सिर्फ अबला के रूप में करते हैं, उनके लिए एक सशक्त और सटीक जवाब भी है।
प्रस्तुति सर्जना चतुर्वेदी

क्या पता कल सुबह मेरी हो ना हो..

बचपन से ठंड का मौसम बहुत भाता था क्योंकि तब खुद की खुशी ही सब कुछ होती थी लेकिन अब वही ठंड का मौसम आता है तो आंखों में यह सोचकर आंसू आ जाते हैं कि उनका क्या होगा जिनकी छत आसमान है और जमीन बिस्तर...। उनके लिए गर्म मफलर, स्वेटर या जेकेट कौन लाकर देगा जो सर्दी की हर रात को जिंदगी की आखिरी रात बनाने की ख्वाहिश ऊपर वाले से करते हैं।
सर्दी में उस घर का क्या होगा जिसकी दीवार भी चंद ईटों को रखकर बनाई गई है, इसलिए जब भी सर्दियां आती हैं तो भले ही वह बगीचों को फूलों से महका देती हैं या फिर खेतों में खूबसूरत फसलें लहलहा देती हैं। हमें फैंसी स्वेटर खरीदने का मौका दे देती हैं लेकिन ईश्वर के कितने ही वंदों की जिंदगी को बदतर बना देती हैं, जरा उनकी भी सोच लो तो रूह कांप जाती है और मन करता है कहूं
ए खुदा ठंड का यह मौसम किसी सितम से कम नहीं...
क्योंकि क्या पता कल सुबह मेरी हो ना हो...
सर्जना चतुर्वेदी